असल में हर त्योहार या उत्सव को मनाने के पीछे के पारंपरिक तथा सांस्कृतिक कारणों के अलावा एक और कारण होता है, मानवीय भावनाओं का। चूँकि प्रकृति मनुष्य को जीवन देती है, जल, नभ और थल मिलकर उसके जीवन को सुंदर बनाते हैं और जीवनयापन के अनगिनत स्रोत उसे उपलब्ध करवाते हैं। इसी विश्वास और श्रद्धा के साथ प्रकृति से जुड़े तमाम त्योहार तथा दिवस मनाए जाते हैं।
वृक्षों, फसलों, नदियों तथा पशु-पक्षियों को पूजा जाता है, उनकी आराधना की जाती है। ताकि समृद्धि के ये सूचक हम पर अपनी कृपा सदैव बनाए रखें। हरियाली तीज को भी हम इसी कड़ी में रख सकते हैं।श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज कहते हैं। जनमानस में यह हरियाली तीज के नाम से जानी जाती है। यह मुख्यत: स्त्रियों का त्योहार है। इस समय जब प्रकृति चारों तरफ हरियाली की चादर सी बिछा देती है तो प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाच उठता है। जगह-जगह झूले पड़ते हैं। स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं। हरतालिका तीज व्रत भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की तृतीय को हस्त नक्षत्र के दिन होता है.इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती महिला गौरी शंकर की पूजा करती है | हरा रंग जो प्रतीक है प्रकृति का, समृद्धि का और जब इससे जुड़ता है पार्वती और शिव का नाम तो इसे पुकारा जाता है हरियाली तीज के नाम से | यह श्रावणी तीज और कजली तीज के रूप में भी मनायी जाती है|
रीति रिवाज :-----
यह त्यौहार मुख्यत: महिलाओं का त्यौहार है जिसमें महिलाएं उपवास और व्रत रखती हैं और मां गौरी की पूजा करती हैं|इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं| इस समय वर्षा ऋतु की बौछारें प्रकृति को पूर्ण रूप से भिगो देती हैं|
सावन की तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं देश के पूर्वी इलाकों में इसे कजली तीज के रुप में जाना जाता है तथा अधिकतर लोग इसे हरियाली तीज के नाम से जानते हैं |
तीज उत्सव की परम्परा :----
यह दिन स्त्रियों के लिए श्रृंगार तथा उल्लास से भरा होता है। हरी-भरी वसुंधरा के ऊपर इठलाते इंद्रधनुषी चुनरियों के रंग एक अलग ही छटा बिखेर देते हैं। स्त्रियाँ पारंपरिक तरीकों से श्रृंगार करती हैं तथा माँ पार्वती से यह कामना करती हैं कि उनकी जिंदगी में ये रंग हमेशा बिखरे रहें।
विवाहित स्त्रियाँ इस दिन खासतौर पर मायके आती हैं और यहाँ से उन्हें ढेर सारे उपहार दिए जाते हैं, जिसे तीज का शगुन या सिंजारा कहा जाता है। इसी तरह जिस युवती का विवाह तय हो गया होता उसे उसके ससुराल से ये सिंजारा भेजा जाता है। सिंजार में अनेक वस्तुएँ होती हैं। जैसे - मेंहदी, लाख की चूड़ियाँ, लहरिया नामक विशेष वेश–भूषा, जिसे बाँधकर रंगा जाता है तथा एक मिष्टान जिसे "घेवर" कहते हैं।
पूजन के बाद महिलाएँ मिलकर शिव-गौरी के सुखद वैवाहिक जीवन से जुड़े लोकगीत गाती हैं। इन लोकगीतों की मिठास समूची प्रकृति में घुली हुई सी महसूस होती है।
मेहँदी भरे हाथों की खनक तथा सुमधुर ध्वनि के साथ छनकती चूड़ियाँ, माहौल को संगीतमय बना देती हैं। सौभाग्य और सुखी दांपत्य जीवन की कामना से मनाई जाने वाली तीन तीजों में से एक हरियाली तीज प्रकृति के सुंदर वरदानों के लिए उसका शुक्रिया अदा करने का भी उत्सव बन जाती है।
पौराणिक महत्व :----
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वृक्षों, फसलों, नदियों तथा पशु-पक्षियों को पूजा जाता है, उनकी आराधना की जाती है। ताकि समृद्धि के ये सूचक हम पर अपनी कृपा सदैव बनाए रखें। हरियाली तीज को भी हम इसी कड़ी में रख सकते हैं।श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज कहते हैं। जनमानस में यह हरियाली तीज के नाम से जानी जाती है। यह मुख्यत: स्त्रियों का त्योहार है। इस समय जब प्रकृति चारों तरफ हरियाली की चादर सी बिछा देती है तो प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाच उठता है। जगह-जगह झूले पड़ते हैं। स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं। हरतालिका तीज व्रत भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की तृतीय को हस्त नक्षत्र के दिन होता है.इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती महिला गौरी शंकर की पूजा करती है | हरा रंग जो प्रतीक है प्रकृति का, समृद्धि का और जब इससे जुड़ता है पार्वती और शिव का नाम तो इसे पुकारा जाता है हरियाली तीज के नाम से | यह श्रावणी तीज और कजली तीज के रूप में भी मनायी जाती है|
रीति रिवाज :-----
यह त्यौहार मुख्यत: महिलाओं का त्यौहार है जिसमें महिलाएं उपवास और व्रत रखती हैं और मां गौरी की पूजा करती हैं|इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं| इस समय वर्षा ऋतु की बौछारें प्रकृति को पूर्ण रूप से भिगो देती हैं|
सावन की तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं देश के पूर्वी इलाकों में इसे कजली तीज के रुप में जाना जाता है तथा अधिकतर लोग इसे हरियाली तीज के नाम से जानते हैं |
तीज उत्सव की परम्परा :----
यह दिन स्त्रियों के लिए श्रृंगार तथा उल्लास से भरा होता है। हरी-भरी वसुंधरा के ऊपर इठलाते इंद्रधनुषी चुनरियों के रंग एक अलग ही छटा बिखेर देते हैं। स्त्रियाँ पारंपरिक तरीकों से श्रृंगार करती हैं तथा माँ पार्वती से यह कामना करती हैं कि उनकी जिंदगी में ये रंग हमेशा बिखरे रहें।
विवाहित स्त्रियाँ इस दिन खासतौर पर मायके आती हैं और यहाँ से उन्हें ढेर सारे उपहार दिए जाते हैं, जिसे तीज का शगुन या सिंजारा कहा जाता है। इसी तरह जिस युवती का विवाह तय हो गया होता उसे उसके ससुराल से ये सिंजारा भेजा जाता है। सिंजार में अनेक वस्तुएँ होती हैं। जैसे - मेंहदी, लाख की चूड़ियाँ, लहरिया नामक विशेष वेश–भूषा, जिसे बाँधकर रंगा जाता है तथा एक मिष्टान जिसे "घेवर" कहते हैं।
पूजन के बाद महिलाएँ मिलकर शिव-गौरी के सुखद वैवाहिक जीवन से जुड़े लोकगीत गाती हैं। इन लोकगीतों की मिठास समूची प्रकृति में घुली हुई सी महसूस होती है।
मेहँदी भरे हाथों की खनक तथा सुमधुर ध्वनि के साथ छनकती चूड़ियाँ, माहौल को संगीतमय बना देती हैं। सौभाग्य और सुखी दांपत्य जीवन की कामना से मनाई जाने वाली तीन तीजों में से एक हरियाली तीज प्रकृति के सुंदर वरदानों के लिए उसका शुक्रिया अदा करने का भी उत्सव बन जाती है।
पौराणिक महत्व :----
- श्रावण शुक्ल तृतीया (तीज) के दिन भगवती पार्वती सौ वर्षों की तपस्या साधना के बाद भगवान शिव से मिली थीं।
- माँ पार्वती का इस दिन पूजन - आह्वान विवाहित स्त्री - पुरुष के जीवन में हर्ष प्रदान करता है।
- समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है।
- इसे श्रावणी तीज, हरियाली तीज तथा कजली तीज भी कहते हैं।
- बुन्देलखंड के जालौन, झाँसी, दनिया, महोबा, ओरछा आदि क्षेत्रों में इसे हरियाली तीज के नाम से व्रतोत्सव के रूप में मनाते हैं।
- पूर्वी उत्तर प्रदेश, बनारस, मिर्ज़ापुर, देवलि, गोरखपुर, जौनपुर, सुल्तानपुर आदि ज़िलों में इसे कजली तीज के रूप में मनाने की परम्परा है।
- लोकगायन की एक प्रसिद्ध शैली भी इसी नाम से प्रसिद्ध हो गई है, जिसे 'कजली' कहते हैं।
- राजस्थान के लोगों के लिए त्योहार ही जीवन का सार है।
- हरियाली तीज के अवसर पर मौज मस्ती करती हुई लड़कियाँ
- तीज के आगमन के हर्ष में मोर हर्षित हो नृत्य करने लगते हैं।
- स्त्रियाँ उद्यानों में लगे रस्सी के झूले में झूलकर प्रसन्नचित् होती हैं तथा सुरीले गीतों से वातावरण गूँज उठता है।
तीज की विशेष रस्म बया :----
- इसमें अनेक भेंट वस्तुएँ होती हैं, जिसमें वस्त्र व मिष्ठान होते हैं। इसे माँ अपनी विवाहित पुत्री को भेजती है। पूजा के बाद 'बया' को सास को सुपुर्द कर दिया जाता है।
- पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी यदि कन्या ससुराल में है, तो मायके से तथा यदि मायके में है, तो ससुराल से मिष्ठान, कपड़े आदि भेजने की परम्परा है। इसे स्थानीय भाषा में 'तीज' की भेंट कहा जाता है।
- राजस्थान हो या पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रायः नवविवाहिता युवतियों को सावन में ससुराल से मायके बुला लेने की परम्परा है।
- सभी विवाहिताएँ इस दिन विशेष रूप से शृंगार करती हैं।
- सायंकाल बन ठनकर सरोवर के किनारे उत्सव मनाती हैं और उद्यानों में झूला झूलते हुए कजली के गीत गाती हैं।
जयपुर का तीज माता उत्सव :----
- जयपुर के राजाओं के समय में पार्वती जी की प्रतिमा, जिसे 'तीज माता' कहते हैं, को एक जुलूस उत्सव में दो दिन तक ले जाया जाता था।
- उत्सव से कुछ पूर्व प्रतिमा में दोबारा से रंगकारी की जाती है तथा त्योहार वाले दिन इसे नवपरिधानों से सजाया जाता है।
- पारम्परिक आभूषणों से सुसज्जित राजपरिवार की स्त्रियाँ मूर्ति की पूजा, जनाना कमरे में करती हैं।
- इसके पश्चात प्रतिमा को जुलूस में सम्मिलित होने के लिए प्रांगण में ले जाया जाता है।
- हज़ारों दर्शक बड़ी अधीरता से भगवती की एक झलक पाने के लिए लालायित हो उठते हैं।
- लोगों की अच्छी ख़ासी भीड़ होती है। मार्ग के दोनों ओर, छतों पर हज़ारों ग्रामीण अपने पारम्परिक रंग–बिरंगे परिधानों में एकत्रित होते हैं।
- पुरोहित द्वारा बताए गए शुभ मुहूर्त में, जुलूस का नेतृत्व निशान का हाथी (इसमें एक विशेष ध्वजा बाँधी जाती है) करता है। सुसज्जित हाथी, बैलगाड़ियाँ व रथ इस जुलूस को अत्यन्त ही मनोहारी बना देते हैं।
- यह जुलूस फिर त्रिपोलिया द्वार से प्रस्थान करता है और तभी लम्बी प्रतीक्षा के बाद तीज प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। भीड़ आगे बढ़ प्रतिमा की एक झलक के रूप में आशीर्वाद पाना चाहती है
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