गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

हनुमान मंदिर चलिया भाग 1.

काफी दिन से मन में एक कसक सी थी कि चलिया [ यानि 40 दिन तक लगातार मंदिर जाना ]शुरू किया जाए ....
पर मौसम बदलने का इंतज़ार था ताकि रिक्शा का सफ़र पैदल तय किया जा सके | इसलिए अब मौसम के बदलते ही मैंने चलिया शुरू करने की सोची |
वैसे तो था कि सारे त्यौहार वगेरह ख़त्म हो जाएँ तभी चलिया शुरू किया जाए भैया दूज के बाद ...
पर तब तक कृष्ण पक्ष शुरू हो जायेगा यह सोच कर मैंने शुक्ल पक्ष में ही कार्तिक महीना शुभ जान मंदिर का चलिया शुरू कर दिया | 
तो आइये चलते हैं मेरे साथ हनुमान मंदिर कनाट प्लेस ...
साथ में बात करेंगे कुछ उठ रहे मुद्दों पर .... हर रोज 

पहला दिन:---


आज की छवि हनुमान जी की 

आज रविवार है ...27.10.2013... सुबह 5 बजे उठना हो ही जाता है तो मैंने अपने कुछ जरुरी घरेलू काम निपटाए और निकल पड़ी मंदिर के लिए
समय था 6.59 का...
वैसे तो आजकल बैटरी रिक्शा काफी चल रहे हैं पर मैंने पहले ही निश्चय किया था कि पैदल ही जाना है मेट्रो तक ....ताकि इसी बहाने कुछ चलना भी हो जाए,जिसके लिए इस व्यस्त जिंदगी में से समय ही नहीं निकाल पाते हैं |
ठीक 10 मिनट बाद मैं मेट्रो तक पहुँच गई थी क्योंकि रविवार था तो सड़क पर भी ज्यादा भीड़ नहीं थी |
मेट्रो का सफर तय कर पहुंची राजीव चौक ठीक  7.46 पर वहां से खडग सिंह मार्ग से बाहर निकल इंदिरा चौक पर पहुंची ,जो पालिका बाजार के बिलकुल साथ है यहाँ से दोनों तरफ से सबवे हैं ताकि व्यस्त सड़क पर से गुजरने में समय खराब न हो ...
परन्तु मैं अकेले और सुबह सुबह कभी भी इसे नहीं अपनाती क्योंकि एक तो यह सुनसान होता है और दूसरा वहां गन्दगी भी रहती है इसलिए कौन खतरा मोल ले ....
जैसे ही वहां पहुंची बिल्कुल गेट के बीचों बीच एक भिखारी कम्बल ओढे सो रहा था पास ही एक पिल्ला भाग कर आया और बैठ गया उसके पास जैसे वो फोटो खिंचवाने आया हो जो अभी आप तक पहुंचाती हूँ |



उसके बाद सड़क पार कर पहुंची मंदिर वहां इस समय तक सिर्फ एक ही जूते रखने वाला बैठा था उसके पास जूते उतार अंदर गई ....
उस दिन यहाँ होई व्रत के उपलक्ष्य में लंगर था जो एक बजे के बाद ही शुरू होता है |
माथा टेकने के बाद इसकी परिक्रमा में देखा यह फूलों का कूड़े में परवर्तित ढेर फूलों की यह दुर्दशा मन को नहीं भाई |



उसके बाद मैं बाहर निकल आई जूते पहन उसे कुछ पैसे दिए और मेट्रो की तरफ रवाना हुई और ठीक एक घंटे बाद घर पहुँच गई |

कल जानते हैं दूसरे दिन का हाल मेरे साथ ....

हनुमान मंदिर चलिया भाग 2.क्रमशः ....


शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

अहोई अष्टमी व्रत

मां तो मां होती है। उसकी हर सांस से बच्चों के लिए दुआएं निकलती हैं। अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन हिन्दू भारतीय महिलाओं द्वारा किया जाता है। अहोई अष्टमी का व्रत महिलायें अपनी सन्तान की रक्षा और दीर्घायु के लिए रखती हैं।माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल पूजा-अर्चना के बाद तारों को अर्घ्य देकर व्रत का समापन किया जाता है, कहीं-कहीं पर तारों के स्थान पर चन्द्रमा को अर्घ्य देकर व्रत समाप्त करने की भी परम्परा है।
होई :----
यह होई गेरु आदि के द्वारा दीवाल पर बनाई जाती है अथवा किसी मोटे वस्त्र पर होई काढकर पूजा के समय उसे दीवाल पर टांग दिया जाता है।  इस दिन धोबी मारन लीला का भी मंचन होता है, जिसमें श्री कृष्ण द्वारा कंस के भेजे धोबी का वध करते प्रदर्शन किया जाता है।

Ahoi-Astami

अहोई माता :----
होई के चित्रांकन में ज्यादातर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास सेह तथा उसके बच्चों की आकृतियां बना दी जाती हैं।उत्तर भारत के विभिन्न अंचलों में अहोईमाता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की होई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना होती है।

व्रत विधि विधान :----

  • अहोई अष्टमी व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए, मैं अहोई माता का व्रत कर रही हूँ, ऐसा संकल्प करें।
  • अहोई माता मेरी संतान को दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी रखे। अनहोनी को होनी बनाने वाली माता देवी पार्वती हैं इसलिए माता पार्वती की पूजा करें।
  • अहोई माता की पूजा के लिए गेरू से दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाएँ और साथ ही सेह और उसके सात पुत्रों का चित्र बनाएँ।
  • संध्या काल में इन चित्रों की पूजा करें।
  • अहोई पूजा में एक अन्य विधान यह भी है कि चांदी की अहोई बनाई जाती है जिसे सेह या स्याहु कहते हैं। इस सेह की पूजा रोली, अक्षत, दूध व भात से की जाती है। पूजा चाहे आप जिस विधि से करें लेकिन दोनों में ही पूजा के लिए एक कलश में जल भर कर रख लें।
  • पूजा के बाद अहोई माता की कथा सुने और सुनाएं।
  • पूजा के पश्चात सासू-मां के पैर छूएं और उनका आर्शीवाद प्राप्त करें।
  • तारों की पूजा करें और जल चढ़ायें।
  • इसके पश्चात व्रती अन्न जल ग्रहण करें|

व्रत कथा :----
अहोईअष्टमी की दो लोक कथाएं प्रचलित हैं |
पहली कथा--
प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपा-पोती हेतु मिट्टी लेने खदान में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैव योग से उसी जगह एक सेह की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल सेह के बच्चे को लग गई जिससे सेह का बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था? वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई अपने घर लौट आई। कुछ दिनों बाद उसके बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए बताया कि उसने जान-बूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। हाँ, एक बार खदान में मिट्टी खोदते हुए अंजाने में उससे एक सेह के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है और तत्पश्चात मेरे सातों बेटों की मृत्यु हो गई। यह सुनकर पास-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। बाद में उसे सात पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई। इस कथा से अहिंसा की प्रेरणा भी मिलती है।
दूसरी कथा--
प्राचीन काल में दतिया नगर में चंद्रभान नाम का एक आदमी रहता था। उसकी बहुत सी संतानें थीं, परंतु उसकी संतानें अल्प आयु में ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होने लगती थीं। अपने बच्चों की अकाल मृत्यु से पति-पत्नी दुखी रहने लगे थे। कालान्तर तक कोई संतान न होने के कारण वह पति-पत्नी अपनी धन दौलत का त्याग करके वन की ओर चले जाते हैं और बद्रिकाश्रम के समीप बने जल के कुंड के पास पहुंचते हैं तथा वहीं अपने प्राणों का त्याग करने के लिए अन्न-जल का त्याग करके उपवास पर बैठ जाते हैं। इस तरह छह दिन बीत जाते हैं तब सातवें दिन एक आकाशवाणी होती है कि हे साहूकार! तुम्हें यह दुख तुम्हारे पूर्व जन्म के पाप से मिल रहे है। अतः इन पापों से मुक्ति के लिए तुम्हें अहोई अष्टमी के दिन व्रत का पालन करके अहोई माता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए, जिससे प्रसन्न हो अहोई माता तुम्हें पुत्र प्राप्ति के साथ-साथ उसकी दीर्घ आयु का वरदान देंगी। इस प्रकार दोनों पति-पत्नी अहोई अष्टमी के दिन व्रत करते हैं और अपने पापों की क्षमा मांगते हैं। अहोई मां प्रसन्न होकर उन्हें संतान की दीर्घायु का वरदान देती हैं। आज के समय में भी संस्कारशील माताओं द्वारा जब अपनी सन्तान की इष्टकामना के लिए अहोई माता का व्रत रखा जाता है और सांयकाल अहोई माता की पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से इसका शुभफल उनको मिलता ही है और सन्तान चाहे पुत्र हो या पुत्री, उसको भी निश्कंटक जीवन का सुख मिलता है।अहोईअष्टमी के दिन पेठे का दान करें।

अहोई माता की आरती:----
जय अहोई माता, जय अहोई माता! 
तुमको निसदिन ध्यावत हर विष्णु विधाता। टेक।। 
ब्रह्माणी, रुद्राणी, कमला तू ही है जगमाता। 
सूर्य-चंद्रमा ध्यावत नारद ऋषि गाता।। जय।। 
माता रूप निरंजन सुख-सम्पत्ति दाता।। 
जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता।। जय।। 
तू ही पाताल बसंती, तू ही है शुभदाता। 
कर्म-प्रभाव प्रकाशक जगनिधि से त्राता।। जय।। 
जिस घर थारो वासा वाहि में गुण आता।। 
कर न सके सोई कर ले मन नहीं धड़काता।। जय।। 
तुम बिन सुख न होवे न कोई पुत्र पाता। 
खान-पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।। जय।। 
शुभ गुण सुंदर युक्ता क्षीर निधि जाता। 
रतन चतुर्दश तोकू कोई नहीं पाता।। जय।। 
श्री अहोई माँ की आरती जो कोई गाता। 
उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाता।। जय।।

व्रत उद्यापन विधि:----
जिस स्त्री का पुत्र न हो अथवा उसके पुत्र का विवाह हुआ हो, उसे उद्यापन अवश्य करना चाहिए। इसके लिए एक थाल में सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए। इसके साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी, ब्लाउज एवं रुपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास को उपहार स्वरूप देना चाहिए। उसकी सास को चाहिए कि वस्त्रादि को अपने पास रखकर शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस में वितरित कर दे। यदि कोई कन्या हो तो उसके यहां भेज दे।
... शुभम ...


सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

करवाचौथ भाग 2.

आइये अब देखते हैं कुछ और लागों में किस तरह मनाया जाता है यह त्यौहार ,इसमें भी 
तैयारी की विधि और कथा नीचे बताई गई है 

व्रत विधि :----


Karwa Chauth 2011 India
करवा चौथ व्रत विधि :- करवा चौथ की आवश्यक संपूर्ण पूजन सामग्री को एकत्र करें.

शादीशुदा महिलाओं के लिए करवाचौथ बहुत खास दिन होता है लेकिन इसे विधिवत कैसे रखा जाता है
 ये जानना भी उतना ही खास है. स्त्रियां इस व्रत को पति की दीर्घायु के लिए रखती हैं. यह व्रत अलग-अलग 
क्षेत्रों में वहां की प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप रखा जाता है, लेकिन इन मान्यताओं में थोड़ा-बहुत 
अंतर होता है. सार तो सभी का एक होता है पति की दीर्घायु.

पूरे दिन निर्जला रहें. दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें. इसे वर कहते हैं. चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है.गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं. चौक बनाकर आसन को उस पर रखें. गौरी को चुनरी ओढ़ाएं. बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें.

आठ पूरियों की अठावरी बनाएं. हलुआ बनाएं. पक्के पकवान बनाएं. पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी 
गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं.
जल से भरा हुआ लोटा रखें. वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें. करवा में गेहूं और 
ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें. उसके ऊपर दक्षिणा रखें.
करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें.


गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं. चौक बनाकर आसन को उस पर रखें. गौरी को चुनरी ओढ़ाएं.
 बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें.
गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें. पति की दीर्घायु की कामना करें.
कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासुजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें.


रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें.
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पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर पर्व को संपन्न करें.
इसके बाद पति से आशीर्वाद लें. उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें.

दूसरी व्रत कथा :------
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी।
शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।
सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो।
इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।
वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है।
उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है।
सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है।
एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।
इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है।
सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।

अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।
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करवाचौथ भाग 1.

करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के पंजाबउत्तर प्रदेशमध्य प्रदेश, और राजस्थान का पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती(सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब ४ बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है।ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं।  शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। 

व्रत की तैयारी :----

एक दिन पहले ही व्रत की सब तैयारी कर ली जाती है | इसमें श्रृंगार का सामान चूड़ी,सिंधूर,बिंदी, 
लिपस्टिक मेंहदी वगेरह लाई जाती है |
जिनकी नई शादी होती है उनके मायके से सब सामान जिसे बया कहा जाता है ,जो सास ,
ससुर को भेंट स्वरूप देते हैं आता है | सास ,ससुर बहु को सरगी देकर व्रत की शुरुआत करते हैं  ,
जिसमें मिठाई ,फल, फैनियाँ और श्रृंगार का सामान या पैसे दिए जाते हैं जिससे अपनी इच्छा 
अनुसार बहुएं ले आती हैं |

सुबह 4 बजे उठकर स्नान आदि करके श्रृंगार करके सुहागिनें सरगी खाती हैं इसके बाद 
 बाकी दिन कथा की तैयारी में और तैयार होने में निकल जाता है |

शाम को 4 बजे के करीब कथा के लिए सब स्त्रियाँ  इक्कठी होती हैं फिर कथा की जाती है जिसमें 
सब अपनी थाली में जो बया लेकर आती हैं वो बटाते हैं |
थाली बटाते हुए सब साथ साथ बोलते हैं 
ले वीरो कुड़िये करवरा ले सर्व सुहागन करवरा ... 

पंजाबी व्रत कथा ,विडियो 




कथा सुनने के बाद सब बहुएं अपने से बड़ों के पैर छूती हैं और घर जाकर रात के खाने में 
लग जाती हैं |इसके बाद चाँद के निकलने का इंतज़ार किया जाता है पूरा दिन कोई 
सिलाई बुनाई का काम नहीं किया जाता है |


इंतज़ार के बाद जब चाँद निकल आता है तो उसे अर्घ्य देते हैं जैसा हमारी सासु जी बोलती 
थी वोही हम भी बोलते हैं | सिर धड़ी,पैर कड़ी, अर्घ्य दे  सर्वसुहागन चौबारे खड़ी


अर्घ्य देने के बाद सास ससुर और पति के पैर छू कर आशीर्वाद लिया जाता है और सास 
ससुर को जो बया मनसते हैं वो देते हैं |इसके बाद पति को खाना देकर खुद भी खाते हैं ,
इस तरह यह व्रत सम्पूर्ण होता है  
पंजाबी 
ता ता 



शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

शरद पूर्णिमा

पौराणिक मान्यताएं एवं शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, महालक्ष्मी पर्व ,संसार भर में उत्सव का माहौल। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूर्णिमा'। हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं | सनातन धर्म के सभी पर्व त्योहारों में शरद पूर्णिमा सर्वश्रेष्ठ है |



शरद पूर्णिमा :----
जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं; ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चंद्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दी धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचा था।

धार्मिक मान्यता :----
इस दिन श्री कृष्ण को 'कार्तिक स्नान' करते समय कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी पूजन करने वाली कुमारियों को चीर हरण के अवसर पर दिए वरदान की याद आई थी और उन्होंने मुरलीवादन करके यमुना के तट पर गोपियों के संग रास रचाया था। इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा-पूजन किया जाता है।
शरद ऋतु में मौसम एकदम साफ़ रहता है। इस दिन आकाश में न तो बादल होते हैं। और न ही धूल-गुबार। इस रात्रि में भ्रमण और चंद्रकिरणों का शरीर पर पड़ना बहुत ही शुभ माना जाता है। प्रति पूर्णिमा को व्रत करने वाले इस दिन भी चंद्रमा का पूजन करके भोजन करते हैं।



शरद पूर्णिमा का महत्व :----
ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी का जन्म शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए देश के कई हिस्सों में शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तब मां लक्ष्मी राधा रूप में अवतरित हुई। भगवान श्री कृष्ण और राधा की अद्भुत रासलीला का आरंभ भी शरद पूर्णिमा के दिन माना जाता है। 
शैव भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय का जन्म भी शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसी कारण से इसे कुमार पूर्णिमा भी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में इस दिन कुमारी कन्याएं प्रातः स्नान करके सूर्य और चन्द्रमा की पूजा करती हैं। माना जाता है कि इससे योग्य पति प्राप्त होता है।

विधान :----
*इस दिन प्रात: काल स्नान करके आराध्य देव को सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करके आवाहन, आसन, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से उनका पूजन करना चाहिए।
*रात्रि के समय गाय के दूध से बनी खीर में घी तथा चीनी मिलाकर अर्द्धरात्रि के समय भगवान को अर्पण करना चाहिए।
*पूर्ण चंद्रमा के आकाश के मध्य स्थित होने पर उनका पूजन करें तथा खीर का नैवेद्य अर्पण करके, रात को खीर से भरा बर्तन खुली चांदनी में रखकर दूसरे दिन या 3 घंटे बाद उसका भोजन करें तथा सबको उसका प्रसाद दें।
*पूर्णिमा का व्रत करके कथा सुननी चाहिए। कथा सुनने से पहले एक लोटे में जल तथा गिलास में गेहूं, पत्ते के दोनों में रोली तथा चावल रखकर कलश की वंदना करके दक्षिणा चढ़ाए। फिर तिलक करने के बाद गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कथा सुनें। फिर गेहूं के गिलास पर हाथ फेरकर मिश्राणी के पांव स्पर्श करके गेहूं का गिलास उन्हें दे दें। लोटे के जल का रात को चंद्रमा को अर्ध्य दें।

व्रत कथा :----
एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पूर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधूरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पूरा विधिपूर्वक व्रत करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है।
उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से कपडे से ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी तो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा।बडी बहन बोली-” तू मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया। 
वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बाल रूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। ऐसा कहते हैं कि कोजागिरी की शीतल चांदनी तन पर लेने वालों को मनःशांति, मनःशक्ति और उत्तम स्वास्थ्य का लाभ मिलता है। 
शरद ऋतु की आबोहवा अपने साथ काफी तब्दीलियां लिए होती है। 
ऐसे में दिन गर्म और रातें ठंडी हो जाती हैं और तब दूध पीने से पित्त प्रकोप कम हो जाता है। 
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शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

नवरात्र भाग 2.

नवदुर्गा :-
नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीया सरस्वतीकि तथा दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।
नौ देवियाँ है :-
1.श्री शैलपुत्री
2.श्री ब्रह्मचारिणी
3.श्री चंद्रघंटा
4.श्री कुष्मांडा
5.श्री स्कंदमाता
6.श्री कात्यायनी
7.श्री कालरात्रि
8.श्री महागौरी
9.श्री सिद्धिदात्री 
इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीज़ों से भी सम्बंध है, जिन्हें नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है-
1.कुट्टू (शैलान्न)
2.दूध-दही
3.चौलाई (चंद्रघंटा)
4.पेठा (कूष्माण्डा)
5.श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
6.हरी तरकारी (कात्यायनी)
7.काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
8.साबूदाना (महागौरी)
9.आंवला (सिद्धिदात्री)
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
अष्टमी या नवमी:-
यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है। भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार, बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए। 
कन्या पूजन:-
अष्टमी और नवमी दोनों ही दिन कन्या पूजन और लोंगड़ा पूजन किया जा सकता है। अतः श्रद्धापूर्वक कन्या पूजन करना चाहिये।
1.सर्वप्रथम माँ जगदम्बा के सभी नौ स्वरूपों का स्मरण करते हुए घर में प्रवेश करते ही कन्याओं के पाँव धोएं।
2.इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर बिंदी लगाएं।
3.उनकी थाली में हलवा-पूरी और चने परोसे।
4.अब अपनी पूजा की थाली जिसमें दो पूरी और हलवा-चने रखे हुए हैं, के चारों ओर हलवा और चना भी रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलाएं।
5.कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को अपनी थाली में से यही प्रसाद खाने को दें।
6.अब कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें।
7.जय माता दी कहकर उनके चरण छुएं और उनके प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास रखे कुंभ का जल सारे घर में बरसाएँ।
नवरात्रों का महत्त्व:-
नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृ्द्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं। सभी नवरात्रों में माता के सभी 51 पीठों पर भक्त विशेष रुप से माता एक दर्शनों के लिये एकत्रित होते हैं। जिनके लिये वहाँ जाना संभव नहीं होता है, उसे अपने निवास के निकट ही माता के मंदिर में दर्शन कर लेते हैं। नवरात्र शब्द, नव अहोरात्रों का बोध करता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक है। उपासना और सिद्धियों के लिये दिन से अधिक रात्रियों को महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू के अधिकतर पर्व रात्रियों में ही मनाये जाते हैं। रात्रि में मनाये जाने वाले पर्वों में दीपावली, होलिका दहन, दशहरा आदि आते हैं। शिवरात्रि और नवरात्रे भी इनमें से कुछ एक है। रात्रि समय में जिन पर्वों को मनाया जाता है, उन पर्वों में सिद्धि प्राप्ति के कार्य विशेष रुप से किये जाते हैं। नवरात्रों के साथ रात्रि जोड़ने का भी यही अर्थ है, कि माता शक्ति के इन नौ दिनों की रात्रियों को मनन व चिन्तन के लिये प्रयोग करना चाहिए।
धार्मिक महत्त्व:-
चैत्र और आश्चिन माह के नवरात्रों के अलावा भी वर्ष में दो बार गुप्त नवरात्रे आते हैं। पहला गुप्त नवरात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष व दूसरा गुप्त नवरात्रा माघ शुक्ल पक्ष में आता है। आषाढ और माघ मास में आने वाले इन नवरात्रों को गुप्त विधाओं की प्राप्ति के लिये प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन्हें साधना सिद्धि के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। तांन्त्रिकों व तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय और भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते हैं। इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है। इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्त्व कहा गया है।

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

नवरात्र भाग 1.

 नवरात्र हिन्दू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार माता भगवती की आराधना का श्रेष्ठ समय होता है। भारत में नवरात्र का पर्व, एक ऐसा पर्व है जो हमारी संस्कृति में महिलाओं के गरिमामय स्थान को दर्शाता है। वर्ष के चार नवरात्रों में चैत्रआषाढ़आश्विन और माघ की शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन के होते हैं,परंतु प्रसिद्धि में चैत्र और आश्विन के नवरात्र ही मुख्य माने जाते हैं। इनमें भी देवीभक्त आश्विन के नवरात्र अधिक करते हैं। इनको यथाक्रम वासन्ती और शारदीय नवरात्र भी कहते हैं। इनका आरम्भ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से होता है। 
शारदीय नवरात्र:-
शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से शुरू होता है। आश्विन मास में आने वाले नवरात्र का अधिक महत्त्व माना गया है। इसी नवरात्र में जगह-जगह गरबों की धूम रहती है।
चैत्र या वासन्ती नवरात्र:-
चैत्र या वासन्ती नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से होता है। इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते हैं। आज के भागमभाग के युग में अधिकाँश लोग अपने कुल देवी-देवताओं को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग समयाभाव के कारण भी पूजा-पाठ में कम ध्यान दे पाते हैं।
पुराणों में नवरात्र:-
मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई, इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में दुर्गम नामक राक्षस ने कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। उनसे वरदान लेने के बाद उसने चारों वेद व पुराणों को कब्जे में लेकर कहीं छिपा दिया। जिस कारण पूरे संसार में वैदिक कर्म बंद हो गया। इस वजह से चारों ओर घोर अकाल पड़ गया। पेड़-पौधे व नदी-नाले सूखने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। जीव जंतु मरने लगे। सृष्टि का विनाश होने लगा। सृष्टि को बचाने के लिए देवताओं ने व्रत रखकर नौ दिन तक माँ जगदंबा की आराधना की और माता से सृष्टि को बचाने की विनती की। तब माँ भगवती व असुर दुर्गम के बीच घमासान युद्ध हुआ। माँ भगवती ने दुर्गम का वध कर देवताओं को निर्भय कर दिया। तभी से नवदुर्गा तथा नव व्रत का शुभारंभ हुआ।
कलश स्थापना, देवी दुर्गा की स्तुति, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध – यह नौ दिनों तक चलने वाले साधना पर्व नवरात्र का चित्रण है। हमारी संस्कृति में नवरात्र पर्व की साधना का विशेष महत्त्व है। नवरात्र में ईश-साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। आश्विन माह की नवरात्र में रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दौरान प्रत्येक इंसान एक नए उत्साह और उमंग से भरा दिखाई पड़ता है। 
नवरात्र या नवरात्रि:-
संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुद्ध है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है।
नौ दिन या रात:-
अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है। यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है। इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्त्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।
शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ़ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
नवरात्र भाग 2.क्रमशः......

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

श्री खाटू श्याम जी भाग 2.


आरती समय सारिणी :----
खाटू मंदिर में पाँच चरणों में आरती होती है- 
मंगला आरती प्रात: 5 बजे, 
धूप आरती प्रात:      7 बजे, 
भोग आरती दोपहर:12.15 बजे, 
संध्या आरती सायं : 7.30 बजे और 
शयन आरती रात्रि : 10 बजे होती है। 
गर्मियों के दिनों में हालाँकि इस समय थोड़ा बदलाव रहता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को श्यामजी के जन्मोत्सव के अवसर पर मंदिर के द्वार 24 घंटे खुले रहते हैं।

श्री खाटू श्याम जी की आरती :----
 जय श्री श्याम हरे, बाबा जय श्री श्याम हरे 
खाटू धाम विराजत, अनुपम रूप धरे || ॐ

रतन जड़ित सिंहासन, सिर पर चंवर ढुरे |
तन केसरिया बागो, कुण्डल श्रवण पड़े || ॐ

गल पुष्पों की माला, सिर पार मुकुट धरे |
खेवत धूप अग्नि पर दीपक ज्योति जले || ॐ

मोदक खीर चूरमा, सुवरण थाल भरे |
सेवक भोग लगावत, सेवा नित्य करे || ॐ

झांझ कटोरा और घडियावल, शंख मृदंग घुरे |
भक्त आरती गावे, जय - जयकार करे || ॐ

जो ध्यावे फल पावे, सब दुःख से उबरे |
सेवक जन निज मुख से, श्री श्याम - श्याम उचरे || ॐ

श्री श्याम बिहारी जी की आरती, जो कोई नर गावे |
कहत भक्त - जन, मनवांछित फल पावे || ॐ

जय श्री श्याम हरे, बाबा जी श्री श्याम हरे |

निज भक्तों के तुमने, पूरण काज करे || ॐ

प्रचलित नाम :----
बर्बरीक के बाल बाल्यकाल में बब्बर शेर की तरह से होने से इनका नाम बर्बरीक रखा गया जिनको आज कई नामों से पुकारा जाता है |खाटू के श्याम, कलयुग के आवतार, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश, हारे का सहारा व अन्य अनगिनत नामों से जानते व मानते हैं |

दर्शनीय स्थल :---- 
श्याम भक्तों के लिए खाटू धाम में श्याम बाग और श्याम कुंड प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। श्याम बाग में प्राकृतिक वातावरण की अनुभूति होती है। यहाँ परम भक्त आलूसिंह की समाधि भी बनाई गई है। श्याम कुंड के बारे में मान्यता है कि यहाँ स्नान करने से श्रद्धालुओं के पाप धुल जाते हैं। पुरुषों और महिलाओं के स्नान के लिए यहाँ पृथक-पृथक कुंड बनाए गए हैं।
                              पुरुषों के लिए जो कुंड है उसका रख रखाव तो फिर भी ठीक से किया जा रहा है ,लेकिन महिलाओं के लिए जो कुंड हैं उसके अंदर बहुत गंद है वहां जाने की ही हिम्मत नहीं हुई उसके पानी पर काई जमी हुई है बदबूदार है |

श्री श्याम कुण्ड 

ठहरने के स्थान :----
यहाँ पर बहुत सारी धर्मशालायें हैं जो कम पैसे में आधुनिक सुविधायें मुहैया करवाती हैं | कुछ होटल भी हैं यहाँ पर आप ठहर सकते हैं |अब काफी निर्माण जारी है |

उपलब्ध सामान:----
यहाँ की मोरपंखी ,चूड़ियाँ ,जुतियां प्रसिद्द हैं | खाने में कड़ी कचोरी ,दही कचोरी ,कैंची से काटकर समोसा जो दिया जाता है उसका स्वाद चखे बिना आप नहीं रह सकते |

प्रसाद :----
प्रसाद में यहाँ बूंदी के लड्डू, पेड़े,बेसन की बर्फी ,मिश्री,मेवे,चूरमा आदि चढ़ाया जाता है |

भिखारी :-----
भिखारिओं की समस्या यहाँ चरम सीमा पर है ,जो आपको गलिओं में कहीं पर भी मिल जाते हैं और आपका पीछा तब तक नहीं छोड़ते जब तक आप या तो गाड़ी में या धर्मशाला में ना घुस जाएँ ,इसे रोकने के लिए प्रशासन को सख्त कदम उठाने चाहिए |
जल्दी ही मिलते हैं सालासार बाला जी के सचित्र वर्णन के साथ ...


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