शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

भाई दूज

भारतीय समाज में परिवार सबसे अहम पहलू है | भारतीय परिवारों के एकता यहां के नैतिक मूल्यों पर टिकी होती है| इन नैतिक मूल्यों को मजबूती देने के लिए वैसे तो हमारे संस्कार ही काफी हैं लेकिन फिर भी इसे अतिरिक्त मजबूती देते हैं हमारे त्यौहार |
दीपावली त्योहार की शुरुआत व समापन की अवधि पांच दिनों की होती है। पर्व की शुरुआत धनतेरस से होती है और भाई-बहन के आत्मीय रिश्ते को दर्शाता एक त्यौहार है भैया दूज या भ्रातृ द्वितीया या यम द्वितीया या भाई दूज ,जिससे उसका समापन होता है|
ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं उन्हें तथा उनकी बहन को यम का भय नहीं रहता।
  हिन्दू समाज में भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का प्रतीक भैया दूज (भाई-टीका) पर्व काफी महत्वपूर्ण माना जाता है| भाई-बहन के पवित्र रिश्तों के प्रतीक के पर्व को हिन्दू समुदाय के सभी वर्ग के लोग और मुस्लिम लोग भी हर्ष उल्लास से मनाते हैं| इस पर्व पर जहां बहनें अपने भाई की दीर्घायु व सुख समृद्धि की कामना करती हैं तो वहीं भाई भी सगुन के रूप में अपनी बहन को उपहार स्वरूप कुछ भेंट देने से नहीं चूकते|

महत्व:--
जिनकी बहनें दूर रहती हैं, वे भाई अपनी बहनों से मिलने भाईदूज पर अवश्य जाते हैं और उनसे टीका कराकर उपहार आदि देते हैं। बहनें पीढियों पर चावल के घोल से चौक बनाती हैं। इस चौक पर भाई को बैठा कर बहनें उनके हाथों की पूजा करती हैं।
शास्त्रों के अनुसार भैयादूज अथवा यम द्वितीया को मृत्यु के देवता यमराज का पूजन किया जाता है। इस दिन बहनें भाई को अपने घर आमंत्रित कर अथवा सायं उनके घर जाकर उन्हें तिलक करती हैं और भोजन कराती हैं। ब्रजमंडल में इस दिन बहनें भाई के साथ यमुना स्नान करती हैं, जिसका विशेष महत्व बताया गया है। भाई के कल्याण और वृद्धि की इच्छा से बहने इस दिन कुछ अन्य मांगलिक विधान भी करती हैं। यमुना तट पर भाई-बहन का समवेत भोजन कल्याणकारी माना जाता है।

पौराणिक कथा :--
सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ। यमुना अपने भाई यमराज से स्नेहवश निवेदन करती थी कि वे उसके घर आकर भोजन करें। लेकिन यमराज व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात को टाल जाते थे।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना अपने द्वार पर अचानक यमराज को खड़ा देखकर हर्ष-विभोर हो गई। प्रसन्नचित्त हो भाई का स्वागत-सत्कार किया तथा भोजन करवाया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने बहन से वर माँगने को कहा।
तब बहन ने भाई से कहा कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाए उसे आपका भय न रहे। यमराज 'तथास्तु' कहकर यमपुरी चले गए। कथा के अनुसार इस दिन भगवान यमराज अपनी बहन यमुना से मिलने जाते हैं। उन्हीं का अनुकरण करते हुए भारतीय भ्रातृ परम्परा अपनी बहनों से मिलती है और उनका यथेष्ट सम्मान पूजनादि कर उनसे आशीर्वाद रूप तिलक प्राप्त कर कृतकृत्य होती हैं।
बहनों को इस दिन नित्य कृत्य से निवृत्त हो अपने भाई के दीर्घ जीवन, कल्याण एवं उत्कर्ष हेतु तथा स्वयं के सौभाग्य के लिए अक्षत (चावल) कुंकुमादि से अष्टदल कमल बनाकर इस व्रत का संकल्प कर मृत्यु के देवता यमराज की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। इसके पश्चात यमभगिनी यमुना, चित्रगुप्त और यमदूतों की पूजा करनी चाहिए। तदंतर भाई के तिलक लगाकर भोजन कराना चाहिए। इस विधि के संपन्न होने तक दोनों को व्रती रहना चाहिए।



पूजन विधि :--
इस पूजा में भाई की हथेली पर बहनें चावल का घोल लगाती हैं उसके ऊपर सिन्दूर लगाकर कद्दू के फूल, पान, सुपारी मुद्रा आदि हाथों पर रखकर धीरे धीरे पानी हाथों पर छोड़ते हुए कुछ मंत्र बोलती हैं जैसे "गंगा पूजे यमुना को यमी पूजे यमराज को, सुभद्रा पूजा कृष्ण को, गंगा यमुना नीर बहे मेरे भाई की आयु बढ़े" इसी प्रकार कहीं इस मंत्र के साथ हथेली की पूजा की जाती है " सांप काटे, बाघ काटे, बिच्छू काटे जो काटे सो आज काटे" इस तरह के शब्द इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि आज के दिन अगर भयंकर पशु काट भी ले तो यमराज के दूत भाई के प्राण नहीं ले जाएंगे। कहीं कहीं इस दिन बहनें भाई के सिर पर तिलक लगाकर उनकी आरती उतारती हैं और फिर हथेली में कलावा बांधती हैं। भाई का मुंह मीठा करने के लिए उन्हें माखन मिस्री खिलाती हैं। संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर रखती हैं। इस समय ऊपर आसमान में चील उड़ता दिखाई दे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इस संदर्भ में मान्यता यह है कि बहनें भाई की आयु के लिए जो दुआ मांग रही हैं उसे यमराज ने कुबूल कर लिया है या चील जाकर यमराज को बहनों का संदेश सुनाएगा।




उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में इसी दिन 'गोधन' नामक पर्व मनाया जाता है जो भाईदूज की तरह होता है।

वस्तुत: इस त्योहार का मुख्य उद्देश्य है भाई-बहन के मध्य सौमनस्य और सद्भावना का पावन प्रवाह अनवरत प्रवाहित रखना तथा एक-दूसरे के प्रति निष्कपट प्रेम को प्रोत्साहित करना है। इस प्रकार दीपोत्सव-पर्व का धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय महत्व अनुपम है।
विशेष ध्यान देने की बात है कि आज हम सब इस भौतिक चकाचौंध से प्रभावित हो अंधे होकर लक्ष्मी के पीछे ना दौड़ें बल्कि हम उसका उचित प्रयोग कर उसे दान दक्षिणा में लगायें |

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

विश्वकर्मा कौन से हुए ?

दीपावली के बाद वाला दिन गोवर्धन पूजा के साथ साथ विश्वकर्मा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है |
हिन्दू धर्म में विश्वकर्मा को निर्माण एवं सृजन का देवता माना जाता है।विश्वकर्मा हस्तलिपि कलाकार थे। जिन्होंने हमें सभी कलाऔ का ज्ञान दिया।
विश्वकर्मा कौन से हुए ?
साधन, औजार, युक्ति व निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां हैं बहुत से विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मूल पुरुष या आदि पुरुष हुआ ही न हो, विद्वानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा कौन से हुए। कुछ एक विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं,


ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐ लिखी हुई है। जिनके प्रत्येक मन्त्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि। यही सुक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रो मे आया है ऋग्वेद मे विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती वेदों मे भी विशेषण रुप मे इसके प्रयोग अज्ञत नही है यह प्रजापति का भी विशेषण बन कर आया है।

प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित।
परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-

बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।
'विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः।। 16।।
अर्थात ..महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।

शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी कारीगर उनकी पूजा करते हैं। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता है।

प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। " विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है

"विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः
अर्थातः जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विशवकर्मा है। यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विशवरुप विशवात्मा है। वेदो मे

विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात
कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है। हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए।

हमारी भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उधोगों मॆ भगवान विश्वकर्मा की महता को प्रगत करते हुए प्रत्येक वर्ग 17 सितम्बर को श्वम दिवस के रुप मे मनाता हे। यह उत्पादन-वृदि ओर राष्टीय समृध्दि के लिए एक संकलप दिवस है। यह जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान नारे को भी श्वम दिवस का संकल्प समाहित किये हुऐ है।

यह पर्व सोरवर्ष के कन्या संर्काति मे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर विश्वकर्मा-पूजा के रुप मे सरकारी व गैर सरकारी ईजीनियरिग संस्थानो मे बडे ही हषौलास से सम्पन्न होता हे। लोग भ्रम वश इस पर्व को विश्वकर्मा जयंति मानते हे। जो सर्वदा अनुचित हे। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा कन्या की संक्राति (17 सितम्बर), कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयन्ति) मई दिवस आदि विश्वकर्मा-पूजा महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा-अर्चना की जाती है।

भगवान विशवकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। जैसे भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा इस तिंथि की महिमा का पूर्व विवरण महाभारत मे विशेष रुप से मिलता है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा अर्चना की जाती है। यह शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर पर मनाया जाता है। अन्नकूट (गोवर्धन पूजा) दिपावली से अगले दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा अर्चना (औजार पूजा) की जाती है। मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है। रुसी क्रांति श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रुप मे मनाया जाता है। 5 मई को ऋषि अंगिरा जयन्ति होने से विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव मनाया जाता है भगवान विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत रुप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे साक्षात रुप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे भी है।

माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा र्विशति में जातो विशवकमॉ भवनि च।।
धर्मशास्त्र भी माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति बता रहे है। अतः अन्य दिवस भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा-अर्चना व महोत्सव दिवस के रुप मे मनाऐ जाते है। ईसी तरह भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती पर भी विद्वानों में मतभेद है। 

निसंदेह यह विषय निर्भ्रम नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। अतः सभी विशवकर्मा मन्दिर व धर्मशालाऔं, विशवकर्मा जी से सम्बंधित संस्थाऔं, संघ व समितिऔं को प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से मांग जानी चाहिए की समपूर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, भारत की विभिन्न युनीर्वशटीजो मे इस विषय पर शौध की जानी चाहीए, विदेशों में भी खोज की जाय, तथा भारत सरकार विश्वकर्मा वशिंयो का सर्वेक्षण किसी प्रमुख मीडिया एजेन्सी से करवाऐ। श्रुति का वचन है कि विवाह, यज्ञ, गृह प्रवेश आदि कर्यो मे अनिवार्य रुप से विशवकर्मा-पुजा करनी चाहिए

स्पष्ट है कि विशवकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा-अर्चना अपनी व राष्टीय उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।

जगदचक विश्वकर्मन्नीश्वराय नम:।।

विश्वकर्मा पूजा:--
वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य भगवान विश्वकर्मा की जयंती देशभर में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को मनाया जाता है| लेकिन कुछ भागों में इसे दीपावली के दूसरे दिन भी मनाया जाता है.
हमारे देश में विश्वकर्मा जयंती बडे़ धूमधाम से मनाई जाती है. इस दिन देश के विभिन्न राज्यों में, खासकर औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे की दुकान, वाहन शोरूम, सर्विस सेंटर आदि में पूजा होती है. इस मौके पर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है. इस दिन ज्यादातर कल-कारखाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है.
उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, दिल्ली आदि राज्यों में भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति स्थापित की जाती है और उनकी आराधना की जाती है|

भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप:--
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले. उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं. यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया. इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है| 

विश्वकर्मा पर प्रचलित कथा :--
भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा है. इसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था. अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था. पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी. पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी. तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य को सुनो  इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे. उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है |

पूजन विधि:--
भगवान विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ विशेष विधि-विधान से होता है. इसकी विधि यह है कि यज्ञकर्ता पत्नी सहित पूजा स्थान में बैठे. इसके बाद विष्णु भगवान का ध्यान करे. तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर निम्न मंत्र पढ़े 
'ओम आधार शक्तपे नम:' और 'ओम कूमयि नम:', 'ओम अनन्तम नम:', 'पृथिव्यै नम:'

इसके बाद चारों ओर अक्षत छिड़कें अपने हाथ में रक्षासूत्र बांधे एवं पत्नी को भी बांधे , पुष्प जलपात्र में छोड़े, इसके बाद हृदय में भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करें| दीप जलायें, जल के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करें| शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाए| उस पर जल डालें | इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश की तरफ अक्षत चढ़ाएं | चावल से भरा पात्र समर्पित कर विश्वकर्मा बाबा की मूर्ति स्थापित करें और वरुण देव का आह्वान करें | पुष्प चढ़ाकर कहना चाहिए- ‘हे विश्वकर्माजी, इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए’| इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करें |

श्री विश्वकर्मा प्रार्थना:--
हे विश्वकर्मा ! परम प्रभु !, इतनी विनय सुन लीजिये । दु:ख दुर्गुणो को दूर कर, सुख सद् गुणों को दीजिये ।।
ऐसी दया हो आप की, सब जन सुखी सम्पन्न हों । कल्याण कारी गुण सभी में, नित नये उत्पन्न हों ।।
प्रभु विघ्न आये पास ना, ऐसी कृपा हो आपकी । निशिदिन सदा निर्मय रहें, सतांप हो नहि ताप की ।।
कल्याण होये विश्व का, अस ज्ञान हमको दीजिये । निशि दिन रहें कर्त्तव्य रल, अस शक्ति हमनें कीजियें ।।
तुम भक्त – वत्सल ईश हो, `भौवन` तुम्हारा नाम है । सत कोटि  कोट्न अहर्निशि, सुचि मन सहित प्रणाम है ।।
    
हो निर्विकार तथा पितुम हो भक्त वत्सल सर्वथा, हो तुम निरिहत तथा पी उदभुत सृष्टी रचते हो सढा ।
आकार हीन तथा पितुम साकार सन्तत सिध्द हो, सर्वेश होकर भी सदातुम प्रेम वस प्रसिध्द हो ।
करता तुही भरता तुही हरता तुही हो शृष्टि के, हे ईश बहुत उपकार तुम ने सर्लदा हम पर किये ।
उपकार प्रति उपकार मे क्या दें तुम्हे इसके लिए, है क्या हमारा शृष्टि में जो दे तुम्हे इसके लिए ।
जय दीन बन्धु सोक सिधी दैव दैव दया निधे, चारो पदार्थ दया निधे फल है तुम्हारे दृष्टि के ।

क्या है मान्यता ?
कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं. यहां तक कि सतयुग का 'स्वर्ग लोक', त्रेता युग की 'लंका', द्वापर की 'द्वारिका' और कलयुग का 'हस्तिनापुर' आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं. 'सुदामापुरी' की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे. इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है|

कैसे हुई भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति ?
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम 'नारायण' अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए. उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे. ब्रह्मा के पुत्र 'धर्म' तथा धर्म के पुत्र 'वास्तुदेव' हुए. कहा जाता है कि धर्म की 'वस्तु' नामक स्त्री से उत्पन्न 'वास्तु' सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे. उन्हीं वास्तुदेव की 'अंगिरसी' नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए. पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने|

वेद, उपनिषदों में है भगवान विश्वकर्मा के पूजन की गाथा :--
1. हम अपने प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है|

2. माना जाता है कि पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में होने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है. कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है|

3. हमारे धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है. विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्म और भृंगुवंशी विश्वकर्मा|

4. भगवान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र मनु ऋषि थे. इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था. इन्होंने मानव सृष्टि का निर्माण किया है. इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है|

5. विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है. आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है. उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है. वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं|

6. विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है. यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं. स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है. कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे|

7. विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं. विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या बल्कि रथादि वाहन और रत्नों पर विमर्श है. ‘विश्वकर्माप्रकाश’ विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है. विश्वकर्माप्रकाश को वास्तुतंत्र भी कहा जाता है. इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं|

गोवर्धन पूजा



कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है। इस दिन बलि पूजा, अन्न कूट, मार्गपाली आदि उत्सव भी सम्पन्न होते है। अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई।उससे पूर्व ब्रज में भी इंद्र की पूजा की जाती थी। मगर भगवान कृष्ण ने यह तर्क देते हुए कि इंद्र से कोई लाभ नहीं प्राप्त होता जबकि गोवर्धन पर्वत गौधन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसलिए इंद्र की नहीं गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए।


              गोवर्धन हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। दीपावली के दूसरे दिन सायंकाल ब्रज में गोवर्धन पूजा का विशेष आयोजन होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने आज ही के दिन इन्द्र का मानमर्दन कर गिरिराज पूजन किया था। इस दिन मन्दिरों में अन्नकूट किया जाता है। सायंकाल गोबर के गोवर्धन बनाकर पूजा की जाती है।

धार्मिक मान्यता :--
वेदों में इस दिन वरुण, इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं की पूजा का विधान है। इसी दिन बलि पूजा, गोवर्धन पूजा, मार्गपाली आदि होते हैं। इस दिन गाय-बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर, फूल माला, धूप, चंदन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है। यह ब्रजवासियों का मुख्य त्योहार है। 
        अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई। उस समय लोग इन्द्र भगवान की पूजा करते थे तथा छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाया जाता था। ये पकवान तथा मिठाइयां इतनी मात्रा में होती थीं कि उनका पूरा पहाड़ ही बन जाता था।

अन्न कूट:--
अन्न कूट एक प्रकार से सामूहिक भोज का आयोजन है जिसमें पूरा परिवार और वंश एक जगह बनाई गई रसोई से भोजन करता है। इस दिन चावल, बाजरा, कढ़ी, साबुत मूंग, चौड़ा तथा सभी सब्जियां एक जगह मिलाकर बनाई जाती हैं। मंदिरों में भी अन्नकूट बनाकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
 गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा का महत्व :--
गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की पूजा की जाती है।

गोवर्धन पूजन विधि :--
दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा पर उत्तर भारत में मनाया जाने वाला गोवर्धन पर्व मनाया जाता है। इसमें हिंदू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धननाथ जी की अल्पना (तस्वीर या प्रतिमूर्ति) बनाकर उनका पूजन करते है। इसके बाद ब्रज के साक्षात देवता माने जाने वाले गिरिराज भगवान [पर्वत] को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।



गाय बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को भगवान के निमित्त भोग व नैवेद्य में नित्य के नियमित पदार्थों के अतिरिक्त यथासामर्थ्य अन्न से बने कच्चे-पक्के भोग, फल, फूल; अनेक प्रकार के पदार्थ जिन्हें छप्पन भोग कहते हैं। 'छप्पन भोग' बनाकर भगवान को अर्पण करने का विधान भागवत में बताया गया है और फिर सभी सामग्री अपने परिवार, मित्रों को वितरण कर के प्रसाद ग्रहण करें।

पूजन व्रत कथा-
भगवान कृष्ण ने गोकुल वासियों को तर्क दिया कि इंद्र से हमें कोई लाभ नहीं प्राप्त होता। वर्षा करना उनका कार्य है और वह सिर्फ अपना कार्य करते हैं इसलिए इंद्र की नहीं गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए। इसके बाद इंद्र ने ब्रजवासियों को भारी वर्षा से डराने का प्रयास किया, पर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर सभी गोकुलवासियों को उनके कोप से बचा लिया। इसके बाद से ही इंद्र भगवान की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का विधान शुरू हो गया है। यह परंपरा आज भी जारी है।
सब ब्रजवासी सात दिन तक गोवर्धन पर्वत की शरण मे रहें। सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक जल की बूँद भी नही पड़ी। ब्रह्मा जी ने इन्द्र को बताया कि पृथ्वी पर श्री कृष्ण ने जन्म ले लिया है, उनसे तुम्हारा वैर लेना उचित नही है। श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्रदेव अपनी मूर्खता पर बहुत लज्जित हुए तथा भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की।
श्रीकृष्ण ने सातवें दिन गोवर्धन पर्वत को नीचे रखकर ब्रजवासियो को आज्ञा दी कि अब से प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व उल्लास के साथ मनाओ।

पूजा का महत्व-
माना जाता है कि भगवान कृष्ण का इंद्र के मान-मर्दन के पीछे उद्देश्य था कि ब्रजवासी गौ-धन एवं पर्यावरण के महत्व को समझें और उनकी रक्षा करें। आज भी हमारे जीवन में गायों का विशेष महत्व है। आज भी गायों के द्वारा दिया जाने वाला दूध हमारे जीवन में बेहद अहम स्थान रखता है।
यूं तो आज गोवर्धन ब्रज की छोटी पहाड़ी है, किन्तु इसे गिरिराज (अर्थात पर्वतों का राजा) कहा जाता है। इसे यह महत्व या ऐसी संज्ञा इस लिये प्राप्त है क्यूंकि यह भगवान कृष्ण के समय का एक मात्र स्थाई व स्थिर अवशेष है। उस समय की यमुना नदी जहाँ समय-समय पर अपनी धारा बदलती रही है, वहां गोवर्धन अपने मूल स्थान पर ही अविचलित रुप में विद्द्यमान है। इसे भगवान कृष्ण का स्वरुप और उनका प्रतिक भी माना जाता है और इसी रुप में इसकी पूजा भी की जाती है।
बल्लभ सम्प्रदाय के उपास्य देव श्रीनाथ जी का प्राकट्य स्थल होने के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। गर्ग संहिता में इसके महत्व का कथन करते हुए कहा गया है - गोवर्धन पर्वतों का राजा और हरि का प्यारा है। इसके समान पृथ्वी और स्वर्ग में कोई दूसरा तीर्थ नहीं है। यद्यपि वर्तमान काल में इसका आकार-प्रकार और प्राकृतिक सौंदर्य पूर्व की अपेक्षा क्षीण हो गया है, फिर भी इसका महत्व कदापि कम नहीं हुआ है।
यदि आज के दिन कोई दुखी है तो वर्ष भर दुखी रहेगा इसलिए मनुष्य को इस दिन प्रसन्न होकर इस उत्सव को सम्पूर्ण भाव से मनाना चाहिए। इस दिन स्नान से पूर्व तेलाभ्यंग अवश्य करना चहिये। इससे आयु, आरोग्य की प्राप्ति होती है और दु:ख दारिद्र का नाश होता है। इस दिन जो शुद्ध भाव से भग्वत चरण में सादर समर्पित, संतुष्ट, प्रसन्न रहता है वह वर्ष पर्यंत सुखी और समृद्ध रहता है।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

दीपावली

दीप जलाओ आप सब ,तम को कर दो दूर 
लक्ष्मी का है आगमन , हर द्वारे है नूर |
हमारा भारत त्योहारों का देश है ,यहाँ हर ऋतु के परिवर्तन के साथ  कोई ना कोई त्योहार जुड़ा हुआ है | इन त्योहारों के माध्यम से हम सब एक साथ मिलकर अपनी ख़ुशी को प्रकट करते हैं | भारत देश के प्रमुख त्योहार होली,रक्षाबंधन ,दशहरा और दीपावली हैं |इनमें से दीपावली सबसे प्रमुख त्योहार है |



         दीपावली अथवा दीवाली, प्रकाश उत्‍सव है, जो सत्‍य की जीत व आध्‍यात्मिक अज्ञान को दूर करने का प्रतीक है। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। 
       शब्‍द "दीपावली" का शाब्दिक अर्थ है दीपों की पंक्तियां। यह हिंदू कलेन्‍डर का एक बहुत लोकप्रिय त्‍यौहार है। यह कार्तिक के 15वें दिन (अक्‍तूबर/नवम्‍बर) में मनाया जाता है।त्योहारों का जो वातावरण धनतेरस से प्रारम्भ होता है, वह आज के दिन पूरे चरम पर आता है। पांच-दिवसीय दीवाली अथवा दीपावली का पर्व, जिसका इतिहास दंतकथाओं से भरपूर है, तथा अधिकतर कथाएं हिन्दू पुराणों में मिल जाती हैं... लगभग प्रत्येक कथा का सार बुराई पर अच्छाई की जीत ही है | दीपावली की रात्रि को घरों तथा दुकानों पर भारी संख्या में दीपक, मोमबत्तियां और बल्ब जलाए जाते हैं।

दीपावली की तैयारियाँ :--
             कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा का सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं। यह त्‍यौहार नए वस्‍त्रों, दर्शनीय आतिशबाजी और परिवार व मित्रों के साथ विभिन्‍न प्रकार की मिठाइयों के साथ मनाया जाता है। चूंकि यह प्रकाश व आतिशबाजी, खुशी व आनन्‍दोत्‍सव दैव शक्तियों की बुराई पर विजय की सूचक है।

लक्ष्मी पूजन :--
दीपावली पर लक्ष्मीजी का पूजन घरों में ही नहीं, दुकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में भी किया जाता है। कर्मचारियों को पूजन के बाद मिठाई, बर्तन और रुपये आदि भी दिए जाते हैं। दीपावली पर कहीं-कहीं जुआ भी खेला जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर के भाग्य की परीक्षा करना है।
इस प्रथा के साथ भगवान शंकर तथा पार्वती के जुआ खेलने के प्रसंग को भी जोड़ा जाता है, जिसमें भगवान शंकर पराजित हो गए थे। जहां तक धार्मिक दृष्टि का प्रश्न है, आज पूरे दिन व्रत रखना चाहिए और मध्यरात्रि में लक्ष्मी-पूजन के बाद ही भोजन करना चाहिए। जहां तक व्यवहारिकता का प्रश्न है, तीन देवी-देवों महालक्ष्मी, गणेशजी और सरस्वतीजी के संयुक्त पूजन के बावजूद इस पूजा में त्योहार का उल्लास ही अधिक रहता है। इस दिन प्रदोष काल में पूजन करके जो स्त्री-पुरुष भोजन करते हैं, उनके नेत्र वर्ष भर निर्मल रहते हैं। इसी रात को ऐन्द्रजालिक तथा अन्य तंत्र-मन्त्र वेत्ता श्मशान में मन्त्रों को जगाकर सुदृढ़ करते हैं। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर की तरंग पर सुख से सोते हैं और लक्ष्मी जी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं। इसलिए मनुष्यों को सुख प्राप्ति का उत्सव विधिपूर्वक करना चाहिएं।

पूजन विधि :--
1.लक्ष्मी जी के पूजन के लिए घर की साफ-सफ़ाई करके दीवार को गेरू से पोतकर लक्ष्मी जी का चित्र बनाया जाता है। लक्ष्मीजी का चित्र भी लगाया जा सकता है।
2.संध्या के समय भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन, केला, पापड़ तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ होनी चाहिए। लक्ष्मी जी के चित्र के सामने एक चौकी रखकर उस पर मौली बांधनी चाहिए।
3.इस पर गणेश जी की व लक्ष्मी जी की मिट्टी या चांदी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए तथा उन्हें तिलक करना चाहिए। चौकी पर छ: चौमुखे व 26 छोटे दीपक रखने चाहिए और तेल-बत्ती डालकर जलाना चाहिए। फिर जल, मौली, चावल, फल, गुड़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करना चाहिए।
4.पूजा पहले पुरुष करें, बाद में स्त्रियां। पूजन करने के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें। एक छोटा तथा एक चौमुखा दीपक रखकर लक्ष्मीजी का पूजन करें।
5.इस पूजन के पश्चात तिज़ोरी में गणेश जी तथा लक्ष्मी जी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें।
6.अपने व्यापार के स्थान पर बहीखातों की पूजा करें। इसके बाद जितनी श्रद्धा हो घर की बहू-बेटियों को रुपये दें।
7.लक्ष्मी पूजन रात के समय बारह बजे करना चाहिए।लेकिन आजकल मंदिर वगेरह में जो शुभ समय दिया जाता है उसी में पूजा करने का रिवाज है |
8.दुकान की गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए।
9.रात को बारह बजे दीपावली पूजन के बाद चूने या गेरू में रूई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल-बट्टा तथा सूप पर तिलक करना चाहिए।
10.रात्रि की ब्रह्मबेला अर्थात प्रात:काल चार बजे उठकर स्त्रियां पुराने सूप में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाती हैं तथा सूप पीटकर दरिद्रता भगाती हैं।
सूप पीटने का तात्पर्य है- 'आज से लक्ष्मीजी का वास हो गया। दुख दरिद्रता का सर्वनाश हो।' फिर घर आकर स्त्रियां कहती हैं- इस घर से दरिद्र चला गया है। हे लक्ष्मी जी! आप निर्भय होकर यहाँ निवास करिए।

आतिशबाजी की प्रथा :--
            दीपावली के दिन आतिशबाज़ी की प्रथा के पीछे सम्भवत: यह धारणा है कि दीपावली-अमावस्या से पितरों की रात आरम्भ होती है। कहीं वे मार्ग भटक न जाएं, इसलिए उनके लिए प्रकाश की व्यवस्था इस रूप में की जाती है। इस प्रथा का बंगाल में विशेष प्रचलन है।
आतिशबाजी में करोड़ों रूपये जलाकर राख कर दिए जाते हैं ,इसलिए हम सबको मिलकर इसका विरोध करना चाहिए |वोही धन किसी और सृजनात्मक कार्य में लगाना चाहिए |

दीपावली मनाने को लेकर प्रचलित कथायें एवं धारणायें :--
हर प्रांत या क्षेत्र में दीपावली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है | 

*सर्वाधिक प्रचलित कथा के अनुसार देश के उत्तरी भागों में दीपावली का पर्व भगवान श्री रामचंद्र द्वारा राक्षसराज रावण के वध के उपरान्त अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है... महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित धर्मग्रंथ रामायण में उल्लिखित कथा के अनुसार अयोध्या के राजकुमार राम अपनी विमाता कैकेयी की इच्छा तथा पिता दशरथ की आज्ञानुसार 14 वर्ष का वनवास काटकर तथा लंकानरेश रावण का वध कर इसी दिन पत्नी सीता, अनुज लक्ष्मण तथा भक्त हनुमान के साथ अयोध्या लौटे थे, तथा उनके स्वागत में पूरी नगरी को दीपों से सजाया गया था... उसी समय से दीपावली पर दिये जलाकर, पटाखे चलाकर, तथा मिठाइयां बांटकर इस शुभ दिन को मनाने की परम्परा शुरू हुई...

*एक अन्य मान्यता के अनुसार दीपावली के दिन ही माता लक्ष्मी दूध के सागर, जिसे 'केसरसागर' अथवा 'क्षीरसागर' भी कहा जाता है, से उत्पन्न हुई थीं... उत्पत्ति के उपरान्त मां लक्ष्मी ने सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख-समृद्धि का वरदान दिया, इसीलिए दीपावली पर माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है, तथा मान्यता है कि सम्पूर्ण श्रद्धा से पूजा करने से लक्ष्मी जी भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें धन-सम्पदा तथा वैभव से परिपूर्ण करती हैं, तथा मनवांछित फल प्रदान करती हैं |

*इसी दिन उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक हुआ था। विक्रम संवत का आरम्भ भी इसी दिन से माना जाता है। अत: यह नए वर्ष का प्रथम दिन भी है। आज ही के दिन व्यापारी अपने बही-खाते बदलते हैं तथा लाभ-हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं।

*इसी दिन आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का निर्वाण हुआ था।

*इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था और इन्द्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जानकर प्रसन्नतापूर्वक दीपावली मनाई थी।

*ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली को फसलों की कटाई के पर्व के रूप में भी मनाया जाता है... आमतौर पर इस समय तक अनाज और अन्य फसलों की कटाई का काम पूरा होने के बाद किसानों के हाथ में धन भी आ चुका होता है, इसलिए उस धन को लक्ष्मी माता के चरणों में अर्पित कर त्योहार की खुशियां मनाई जाती हैं |

*दक्षिण में, दीपावली त्‍यौहार अक्‍सर नरकासुर, जो असम का एक शक्तिशाली राजा था, और जिसने हजारों निवासियों को कैद कर लिया था, पर विजय की स्‍मृति में मनाया जाता है। ये श्री कृष्‍ण ही थे, जिन्‍होंने अंत में नरकासुर का दमन किया व कैदियों को स्‍वतंत्रता दिलाई। इस घटना की स्‍मृति में प्रायद्वीपीय भारत के लोग सूर्योदय से पहले उठ जाते हैं, व कुमकुम अथवा हल्‍दी के तेल में मिलाकर नकली रक्‍त बनाते हैं। राक्षस के प्रतीक के रूप में एक कड़वे फल को अपने पैरों से कुचलकर वे विजयोल्‍लास के साथ रक्‍त को अपने मस्‍तक के अग्रभाग पर लगाते हैं। तब वे धर्म-विधि के साथ तैल स्‍नान करते हैं, स्‍वयं पर चन्‍दन का टीका लगाते हैं। मन्दिरों में पूजा अर्चना के बाद फलों व बहुत सी मिठाइयों के साथ बड़े पैमाने पर परिवार का जलपान होता है।

*एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था |

*जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है।

* सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण हैक्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 ई. में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था।1619 ई. में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था।

*नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है।

*पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली।

* दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।

दीपावली मनाने के लाभ व हानियाँ :--
लाभ :
. घरों की सॉफ सफाई और सफेदी की जाती है.
. इससे दोस्तों और रिश्तेदारों में भाईचारा बढ़ता है.
. सब छोटे बड़े इस दिन को हर्षोल्लास से मनाते हैं.
. बारिश के बाद जो कीड़े मकोडे पैदा होते हैं, उन्हे इस दिन सरसों के तेल को साड कर मारा जाता है और वातावरण को शुद्ध किया जाता है.
. प्रार्थना करने से अन्दरूनी शक्ति का विकास होता है|

नुकसान :
 . इस दिन चलाने वाले बॉम्ब या आतिशबाज़ियाँ जानलेवा भी हो सकती हैं, ख़ासकर बच्चों के लिए
. इस दिन कई लोग शराब पीते है और जुआ खेलते हैं |

हमारी भावी पीढ़ी नहीं जानती हम दीपावली क्यों मनाते हैं तो हम सबका दायित्व बनता है कि हम उनका मार्गदशन करें ताकि हमारे साथ वो भी अपनी परम्पराओं का सही मूल्यांकन कर सकें | इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हमारे किसी भी कार्य एवं व्यवहार से किसी को भी दुख न पहुंचे, तभी दीपावली का त्योहार मनाना सार्थक होगा।
                                शुभम्    शुभम्    शुभम् 

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

नरक चतुर्दशी

दीपावली के पाँच दिनों के पर्व का दूसरा दिन, अर्थात् लक्ष्मीपूजा के एक दिन पहले वाला दिन, नरक चतुर्दशी कहलाता है।
नरक चतुर्दशी कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को कहा जाता है। नरक चतुर्दशी को 'छोटी दीपावली' भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त इस चतुर्दशी को 'नरक चौदस', 'रूप चौदस', 'रूप चतुर्दशी', 'नर्क चतुर्दशी' या 'नरका पूजा' के नाम से भी जाना जाता है।

नर्क चतुर्दशी

यम देवता की पूजा का पर्व :-
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी के दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा का भी पर्व है। मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर नीम की पत्तियाँ या कोई कड़वी पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है। विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।
             शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। दीपावली को एक दिन का पर्व कहना न्योचित नहीं होगा। इस पर्व का जो महत्व और महात्मय है उस दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण पर्व व हिन्दुओं का त्यौहार है। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्यौहार है । दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली फिर दीपावली और गोवर्धन पूजा, भाईदूज।
छोटी दीपावली का पर्व :-
नरक चतुर्दशी जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। 
इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। 
१.
एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। उन समस्त कन्याओं ने अपने मुक्तिदाता श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। नरकासुर का वध करने के कारण ही श्री कृष्ण को 'नरकारि' के नाम से भी जाना जाता है, 'नरकारि' शब्द नरक तथा अरि के मेल से बना हुआ है, नरक अर्थात नरकासुर और अरि का अर्थ है शत्रु। इसी उपलक्ष्य में नगरवासियों ने नगर को दीपों से प्रकाशित किया और उत्सव मनाया। तभी से नरक चतुर्दशी का त्यौहार मनाया जाने लगा।
२.
एक अन्य कथा यह है कि रन्ति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समझ यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है। पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक ब्राह्मण भूखा लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है।
         दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे वर्ष का और समय दे दे। यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है। ऋषि बोले हे राजन् आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्रह्मणों को भोजन करवा कर उनसे अनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें।
राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है।

हनुमान उत्सव का पर्व :-
शास्त्रों में उल्लेख है कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मंगलवार की अर्द्घ रात्रि में देवी अंजनि के उदर से हनुमान जन्मे थे। देश के कई स्थानों में इस दिन को हनुमान जन्मोत्सव के रूप में भक्ति भाव से मनाया जाता है। 
                इस दिन वाल्मीकि रामायण व सुंदरकांड व हनुमान चालीसा का पाठ कर चूरमा, केला व अमरूद आदि फलों का प्रसाद वितरित किया जाता है। शास्त्रों में हनुमान की राम के प्रति अगाध श्रद्घा व भक्ति को बताया गया है। 
ऐसी ही एक कथा में यह प्रमाणित भी होता है। भगवान श्रीराम लंका पर विजय कर अयोध्या लौटे। जब हनुमान को अयोध्या से बिदाई दी गई तब माता सीता ने उन्हें बहुमूल्य रत्नों से युक्त माला भेंट में दी, पर हनुमान संतुष्ट नहीं हुए व बोले माता इसमें राम-नाम अंकित नहीं है। तब माता सीता ने अपने ललाट का सौभाग्य द्रव्य सिंदूर प्रदान कर कहा कि इससे बड़ी कोई वस्तु उनके पास नहीं है। 
हनुमान को सिंदूर देने के साथ ही माता सीता ने उन्हें अजर-अमर रहने का वरदान भी दिया। यही कारण है कि हनुमान जी को तेल व सिंदूर अति प्रिय है।

धनतेरस

धन त्रयोदशी :---
इस दिन धन की देवी लक्ष्मी ,धन्वन्तरी ,धन के देवता कुबेर और मृत्यु देवता यमराज की पूजा का विशेष महत्त्व है | लोक मान्यता के अनुसार धनतेरस एक धन लगाकर तेरह गुणा धन पाने का त्योहार है। इसलिए अमीर गरीब हर वर्ग के व्यक्ति इस दिन कुछ न कुछ खरीदते हैं। 

लेकिन शास्त्रों के अनुसार धनतेरस के मौके पर लाभ वृद्घि के लिए शुभ मुहूर्त में ही खरीदारी करनी चाहिए। हर दिन कुछ समय ऐसे होते हैं जब खरीदारी या कोई भी शुभ काम करना अच्छा नहीं होता है। इसलिए इस समय का ध्यान रखकर ही धनतेरस पर खरीदारी करें।

धनतेरस

जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए यही कारण है दीपावली दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें।


कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चूँकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन [धातु] खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।
रीति रिवाज :---
धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोई बर्तन खरीदें। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें। यह दिन व्यापारियोँ के लिए विशेष महत्त्व रखता है |

प्रचलित लोक कथा:--
धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। |ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।

धन्वंतरि:---
धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्व पूर्ण होता है। धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या। दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं परंतु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके।

एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं।

धनतेरस के दिन दीप जलाककर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं।

आर्थिक तंगी से बचने के कुछ विशेष उपाय :---
आज हम आपको बताने जा रहे हैं ऐसे ही कुछ छोटे-छोटे उपाय जिनके बारे में ये मान्यता है कि इन्हें धनतेरस के दिन किसी भी शुभ समय में किया जाए तो घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होता है। 

मोर की मिट्टी- 
धनतेरस पर यदि पूजा के समय किसी ऐसे स्थान की मिट्टी जहां मोर नाचा हो लाकर और पूजा करें। इस मिट्टी को लाल कपड़े में बांधकर तिजोरी में रखने से घर पर हमेशा लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी।

गाय का भोजन जरूर निकालें
धनतेरस और दीपावली के दिन रसोई में जो भी भोजन बना हो, सर्वप्रथम उसमें से गाय के लिए कुछ भाग अलग कर दें। ऐसा करने से घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होगा।

ऐसे पेड़ की टहनी रखना है शुभ-
धनतेरस के दिन किसी भी शुभ समय में किसी ऐसे पेड़ की टहनी तोड़ कर लाएं, जिस पर चमगादड़ रहते हों। इसे अपने बैठने की जगह के पास रखें, लाभ होगा।

मंदिर में लगाएं केले के पौधे- 
धनतेरस के दिन किसी भी मंदिर में केले के दो पौधे लगाएं। इन पौधों की समय-समय पर देखभाल करते रहें। इनके बगल में कोई सुगंधित फूल का पौधा लगाएं। केले का पौधा जैसे-जैसे बड़ा होगा, आपके आर्थिक लाभ की राह प्रशस्त होगी।

दक्षिणावर्ती शंख में लक्ष्मी मंत्र का जप-
धनतेरस के दिन लक्ष्मी पूजन के बाद दक्षिणावर्ती शंख में लक्ष्मी मंत्र का जप करते हुए चावल के दाने व लाल गुलाब की पंखुड़ियां डालें। ऐसा करने से समृद्धि का योग बनेगा।
मंत्र- श्रीं

लक्ष्मी को अर्पित करें लौंग- 
धनतेरस के दिन लक्ष्मी पूजन के बाद लक्ष्मी या किसी भी देवी को लौंग अर्पित करें। यह काम दीपावली के दिनों में रोज करें। आर्थिक लाभ होता रहेगा।

लघु नारियल का उपाय- 
धनतेरस पर पूजा के समय धन, वैभव व समृद्धि पाने के लिए 5 लघु नारियल पूजा के स्थान पर रखें। उन पर केसर का तिलक करें और हर नारियल पर तिलक करते समय 27 बार नीचे लिखे मंत्र का मन ही मन जप करते रहें-
                  ऐं ह्लीं श्रीं क्लीं
धनतेरस पर ये आसान उपाय करने से, दूर हो सकती है आर्थिक तंगी
- 11 लघु नारियल को मां लक्ष्मी के चरणों में रखकर ऊं महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् मंत्र की 2 माला का जप करें। किसी लाल कपड़े में उन लघु नारियल को लपेट कर तिजोरी में रख दें व दीपावली के दूसरे दिन किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें। ऐसा करने से लक्ष्मी चिरकाल तक घर में निवास करती है।

-  यदि आप चाहते हैं कि घर में कभी धन-धान्य की कमी न रहे और अन्न का भंडार भरा रहे तो 11 लघु नारियल एक पीले कपड़े में बांधकर रसोई घर के पूर्वी कोने में बांध दें।

किन्नर को धन करें दान- 
धनतेरस के दिन किसी किन्नर को धन दान करें और उसमें से कुछ रुपए वापस अनुरोध करके प्राप्त कर लें। इन रुपयों को सफेद कपड़े में लपेटकर कैश तिजोरी में रख लें, लाभ होगा।

सफेद चीजों का करें दान
धनतेरस पर सफेद पदार्थों जैसे चावल, कपड़े, आटा आदि का दान करने से आर्थिक लाभ का योग बनता है।

सूर्यास्त के बाद न करें झाड़ू-पोंछा- 
दीपावली के दिनों में और हो सके तो रोज ही शाम को सूर्यास्त के बाद घर में झाड़ू-पोंछा न करें। ऐसा करने से घर में लक्ष्मी चली जाती है।

गरीब की आर्थिक सहायता करें
धनतेरस पर किसी गरीब, दुखी, असहाय रोगी को आर्थिक सहायता दें। ऐसा करने से आपकी उन्नति होगी।

हथेलियों के दर्शन हैं शुभ-
प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम अपनी हथेलियों के दर्शन की आदत डालें। यह एक शुभ क्रिया है। इसे करने से आपको शुभ ऊर्जा प्राप्त होगी।

बुधवार, 27 अगस्त 2014

शिमला यात्रा वृतांत भाग 3.

भाग 2.
चौथा दिन 
       सुबह लगभग 9.30 बजे हम सब कुछ हल्का फुल्का नाश्ता लेकर होटल छोड़ कर निकल गए | हमने अपना सामान वहीँ छोड़ दिया था ,बाद में ले जाने के लिए | हमारी कालका से शाम 5.40 की गाड़ी थी और अभी हमें वापिस जाने के लिए टैक्सी करनी थी इसलिए हमने जो टैक्सी वाले घूम रहे थे रिज पर उनसे पूछना शुरू किया और एक से बात हो गई कि वो एक बजे हमारे पास पहुँच जायेगा तो इसके बाद हमने खाना खाने की और थोड़ा तिब्बती बाजार घूमने की सोची | हम वहां से जल्दी वापिस आ गए और पता चला टैक्सी वाले को अभी देर लगने वाली थी इसलिए हमने दूसरी टैक्सी लेने की सोची | दो लोग होटल से सामान लेने चले गए | और भूषण जी टैक्सी का पता करने लगे | तिब्बती बाजार के नीचे की तरफ जो टैक्सी स्टैंड था वहां कोई टैक्सी मिल नहीं रही थी,फिर दूसरे टैक्सी स्टैंड से बहुत मुश्किल से हमें 2 बजे तक एक टैक्सी मिल पाई ,जो कालका हमें छोड़ने के लिए तैयार हुई | आखिर हम सबने टैक्सी में बैठकर चैन की साँस ली |
               टैक्सी लगभग 3 से 3.30 घंटे में शिमला से कालका पहुंचा देती है | 2000 रुपये से लेकर 2,500 रुपये तक में बड़ी टैक्सी मिल जाती है हमें सही ड्राईवर और टैक्सी मिल गई थी उसने हमें 3..4 किलोमीटर पहले एक और टैक्सी में शिफ्ट कर दिया ,क्योंकि उसके बाद वो टैक्सी आगे नहीं जा सकती थी शायद कुछ टैक्स का चक्कर था | लगभग 3 घंटे में टैक्सी ने कालका स्टेशन पर पहुँचा दिया था | 
        हम सब वहां गाड़ी का इंतजार करने लगे और तय समय पर गाड़ी आ गई और हम उसमे सवार हो गए | वोही शताब्दी गाड़ी जिसके चलते ही पहले चाय आ जाती है ,फिर 8 बजे खाना बंटना शुरू हो चूका था और आइस क्रीम | लेकिन इतनी जल्दी सब खाना खाने को तैयार नहीं थे इसलिए उन्होंने खाना वापिस भिजवा दिया ,लेकिन वो खाना पैक करके भी दे रहे थे जो ले जाना चाहे अपना खाना | हम 10.15 बजे तक दिल्ली पहुँच गए थे | वहां से हमने मेट्रो ली और 11 बजे तक घर पहुँच गए |
              आइये अब जाने शिमला के बारे में कुछ और ज्यादा यहाँ हम नहीं जा पाये .....
शिमला की खासियत :-

संस्कृति
शिमला में विभिन्न त्योहारों को मनाया जाता है। शिमला समर फेस्टिवल, पीक पर्यटन सीजन के दौरान हर साल रिज पर आयोजित किया जाता है। इसका मुख्य आकर्षण सभी देश भर से लोकप्रिय गायकों द्वारा प्रदर्शन शामिल है।

कृषि और उद्योग
शिमला एक कृषि बाज़ार है और यहाँ मद्यनिर्माण, हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग जैसे लघु उद्योग हैं।

शिक्षा
शिमला में अनेक पुराने आरोग्यगृह, महाविद्यालय और हिमालय प्रदेश विश्वविद्यालय भी है।
1972-73 में पुनर्गठन के समय शिमला ज़िले (5,000 वर्ग किमी) का विस्तार किया गया था।
शिमला में 14 आंगनबाड़ी और 63 प्राथमिक विद्यालय है। कई ब्रिटिश युग के स्कूल भी हैं।
शिमला में लोकप्रिय स्कूलों में बिशप कॉटन स्कूल, शिमला पब्लिक स्कूल, सेंट एडवर्ड स्कूल, तारा हॉल, डीएवी स्कूल, डीएवी न्यू शिमला, दयानंद पब्लिक स्कूल, ऑकलैंड स्कूल, लालपानी स्कूल प्रमुख हैं।
केन्द्रीय विद्यालय, शिमला के बेहतरीन स्कूलों में से एक है। पहले यह हरकोर्ट बटलर स्कूल के नाम से जाना जाता था।

शिमला में मेडिकल संस्थानों में इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज और दंत चिकित्सा महाविद्यालय हैं।

दर्शनीय स्थल :---
शिमला में और उसके आसपास बहुत सारे दर्शनीय स्थल हैं ,जिनका आप पूरा आनंद सर्दिओं में ले सकते हैं |

रिज
शहर के मध्य में एक बड़ा और खुला स्थान, जहां से पर्वत श्रंखलाओं का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है। यहां शिमला की पहचान बन चुका न्यू-गॉथिक वास्तुकला का उदाहरण क्राइस्ट चर्च और न्यू-ट्यूडर पुस्तकालय का भवन दर्शनीय है।

मॉल
शिमला का मुख्य शॉपिंग सेंटर, जहां रेस्तरां भी हैं। गेयटी थियेटर, जो पुराने ब्रिटिश थियेटर का ही रूप है, अब सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र है। कार्ट रोड से मॉल के लिए हि.प्र.प.वि.नि. की लिफ्ट से भी जाया जा सकता है। रिज के समीप स्थित लक्कड़ बाजार, लकड़ी से बनी वस्तुओं और स्मृति-चिह्नों के लिए प्रसिद्ध है।

काली बाड़ी मंदिर
यह मंदिर स्कैंडल प्वाइंट से जनरल पोस्ट ऑफिस से की ओर कुछ गज की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि यहां श्यामला देवी की मूर्ति स्थापित है।


शिमला तस्वीरें - काली बारी मंदिर - मंदिर का दृश्य


जाखू मंदिर
(2.5 कि.मी.) 2455 मी. : शिमला की सबसे ऊंची चोटी से शहर का सुंदर नजारा देखा जा सकता है। यहां "भगवान हनुमान" का प्राचीन मंदिर है। 
कैसे पहुँचें 
रिज पर बने चर्च के पास से पैदल मार्ग के अलावा मंदिर तक जाने के लिए पोनी या टैक्सी द्वारा भी पहुंचा जा सकता है।



जाखू मन्दिर ..यहाँ हनुमान जी की विशालकाय प्रतिमा 108 ऊँची स्थापित है हनुमान जी का यह विरत रूप देखते ही बनता है | 
मान्यता
पौराणिक कथा के अनुसार राम तथा रावण के मध्य हुए युद्ध के दौरान मेघनाद के तीर से भगवान राम के अनुज लक्ष्मण घायल एवं मूर्छित हो गए थे। उस समय सब उपचार निष्फल हो जाने के कारण वैद्यराज सुषेण ने कहा कि अब एक ही उपाय शेष बचा है। हिमालय की संजीवनी बूटी से लक्ष्मण की जान बचायी जा सकती है। इस संकट की घड़ी में रामभक्त हनुमान ने कहा प्रभु मैं संजीवनी लेकर आता हूँ। हनुमानजी हिमालय की और उड़े, रास्ते में उन्होंने नीचे पहाड़ी पर 'याकू' नामक ऋषि को देखा तो वे नीचे पहाड़ी पर उतरे। जिस समय हनुमान पहाड़ी पर उतरे, उस समय पहाड़ी उनका भार सहन न कर सकी। परिणाम स्वरूप पहाड़ी जमीन में धंस गई। मूल पहाड़ी आधी से ज्यादा धरती में समा गई। इस पहाड़ी का नाम 'जाखू' है। यह 'जाखू' नाम ऋषि याकू के नाम पर पड़ा था।

हनुमान ने ऋषि को नमन कर संजीवनी बूटी के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की तथा ऋषि को वचन दिया कि संजीवनी लेकर आते समय ऋषि के आश्रम पर जरूर आएंगे। हनुमान ने रास्ते में 'कालनेमी' नामक राक्षस द्वारा रास्ता रोकने पर युद्ध करके उसे परास्त किया। इस दौड़धूप तथा समयाभाव के कारण हनुमान ऋषि के आश्रम नहीं जा सके। हनुमान याकू ऋषि को नाराज नहीं करना चाहते थे, इस कारण अचानक प्रकट होकर और अपना विग्रह बनाकर अलोप हो गए। ऋषि याकू ने हनुमान की स्मृति में मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर में जहां हनुमानजी ने अपने चरण रखे थे, उन चरणों को संगमरमर पत्थर से बनवाकर रखा गया है। ऋषि ने वरदान दिया कि बंदरों के देवता हनुमान जब तक यह पहाड़ी है, लोगों द्वारा पूजे जाएंगे।



चैल 
चैल कभी पटियाला के महाराजा की गर्मियों की राजधानी होती थी। यह शिमला से 43 किमी दूर है। यहां विश्व में सबसे ऊंचाई पर स्थित क्रिकेट पिच और पोलो ग्राउंड भी है।
यह जगह लोगों में पिकनिक स्पॉट के रूप में भी काफी लोकप्रिय है। छुट्टी मनाने के लिए आने वाले लोगों के बीच में चैल सेंचुरी काफी प्रसिद्ध है। यहां आप कई जंगली पशुओं को देख सकते हैं। सिद्ध बाबा का मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र है।

कैसे पहुंचें: चैल तक बस या टैक्सी के जरिए पहुंचा जा सकता है।

कहां ठहरें: चैल में ठहरने का खर्च शिमला में ठहरने की अपेक्षा काफी कम खर्च आएगा। यहां फाइव स्टार होटल तो नहीं मिलेंगे, लेकिन यहां कई अच्छे और सस्ते होटल अवश्य उपलब्ध हैं। यहां आप चार हजार रुपए में आराम से रह सकते हैं।

नारकंडा
यह शिमला से 64 किमी दूर है। यह जगह गर्मियों में अपने एडवेंचर और ट्रैकिंग के लिए प्रसिद्ध है। नारकंडा में आप फलों के बगीचे देख सकते हैं। सेब के बगीचे आपको यहां हर जगह मिलेंगे।
कैसे पहुंचे : नारकंडा शिमला से बस या फिर टैक्सी के जरिए पहुंचा सकता है।

राज्य संग्रहालय
(3 कि.मी.): यहां हिमाचल प्रदेश की प्राचीन ऐतिहासिक वास्तुकला और पेंटिंग्स देखे जा सकते हैं। यह संग्रहालय प्रात: 10 बजे से सायं 5 बजे तक खुलता है तथा सोमवार और राजपत्रित अवकाशों में यह बंद रखा जाता है।

इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडी
(4 कि.मी.) 1983 मी. : अंग्रेजी पुनर्जागरण काल में बना यह शानदार भवन पूर्व वायसराय का आवास हुआ करता था। इसके लॉन और पेड़ यहां की शोभा और बढ़ा देते हैं।


Shimla photos, Viceregal Lodge & Botanical Gardens - A lower angled view

प्रोस्पेक्ट हिल
(5 कि.मी.) 2155 मी. : कामना देवी मंदिर को समर्पित यह हिल शिमला-बिलासपुर मार्ग पर बालुगंज से 15 मिनट की पैदल दूरी पर है। हिल से इस क्षेत्र का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

समर हिल
(7 कि.मी.) 1983 मी. : शिमला-कालका रेलमार्ग पर एक सुंदर स्थान है। यहां के शांत वातावरण में पेड़ों से घिरे रास्ते हैं। अपनी शिमला यात्रा के दौरान राष्ट्पिता महात्मा गांधी राजकुमारी अमृत कौर के शानदार जार्जियन हाउस में रुके थे। यहां हिमाचल प्रदेश विश्वद्यालय है।

चैडविक जलप्रपात
(7 कि.मी.) 1586 मी. : घने जंगलों से घिरा यह स्थान समर हिल चौक से लगभग 45 मिनट की पैदल दूरी पर है।

संकट मोचन
(7 कि.मी.) 1975 मी. : शिमला-कालका सड़क मार्ग पर (रा.राज.-22) पर "भगवान हनुमान" का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां से शिमला शहर का सुंदर दृश्य दिखाई देता है। यहां बस/टैक्सी द्वारा पहुंचा जा सकता है।


Shimla photos, Sankat Mochan Temple - Idol of Hanumanji

तारादेवी

(11 कि.मी.) 1851 मी. : शिमला-कालका सड़क मार्ग पर (रा.राज.-22) पर यह पवित्र स्थान के लिए रेल, बस और कार सेवा उपलब्ध है। स्टेशन/सड़क से पैदल अथवा जीप/टैक्सी द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।


Shimla photos, Tara Devi Temple - Tara Devi Temple

नालदेहरा 

नालदेहरा शिमला-तत्तपानी रोड पर शिमला से करीब 25 किमी दूर 6,706 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। देश का सबसे पुराना और सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित गोल्फ कोर्स यही है। यह प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट है। इसके अलावा यह जंगल यात्रा और हॉर्स राइडिग के लिए भी जाना जाता है।

कैसे पहुंचें : नालदेहरा शिमला से 25 किमी दूर स्थित है। यहां आप शिमला से बस या फिर टैक्सी द्वारा पहुंच सकते हैं।


कहां ठहरें : नालदेहरा शिमला से ज्यादा दूर नहीं है। यहां आपको फाइव स्टार होटल तो नहीं मिलेंगे लेकिन छोटे-छोटे होटल यहां जरूर उपलब्ध हैं, जहां आप ठहर सकते हैं।


नालदेहरा तस्वीरें,नालदेहरा गोल्फ कोर्स

कुफरी 
कुफरी, 2743 मीटर की ऊंचाई पर स्थित, शिमला से लगभग 18 किमी की दूरी पर एक छोटा सा शहर है। इस जगह का नाम 'कुफ्र' शब्द से पड़ा है, जिसका स्थानीय भाषा में मतलब है 'झील'। इस जगह के साथ जुड़े आकर्षण के कारण यहाँ वर्ष भर पर्यटक आते हैं। महासू पीक, ग्रेट हिमालयन नेचर पार्क, और फागू कुफरी में कुछ प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं।


ग्रेट हिमालयन नेचर पार्क पक्षियों और जानवरों की 180 से अधिक प्रजातियों का घर है। फागू , कुफरी से 6 किमी दूरी पर स्थित, शांति प्रेमियों के बीच एक लोकप्रिय गंतव्य है। सुरम्य पर्वत श्रृंखला से घिरा हुआ है, यह गंतव्य एक लोकप्रिय धार्मिक स्थल भी है।
आसपास के कुछ मंदिर अपनी लकड़ी की नक्काशी के लिए जाने जाते रहे हैं। यह जगह लंबी पैदल यात्रा, शिविर और ट्रैकिंग जैसे विभिन्न साहसिक गतिविधियों के लिए भी लोकप्रिय है। कुफरी में अपने प्रवास के दौरान साहसिक उत्साही स्कीइंग, टोबोगैनिंग, गो–कार्टिंग, और घोड़े की सवारी की तरह विभिन्न खेलों का आनंद ले सकते हैं।

कुछ सावधानियां :--
1.पहाड़ी स्थान पर जाने के लिए काफी चलने के लिए जो सक्षम हो वोही शिमला यात्रा का आनंद उठा सकता है | 
2.टॉय ट्रेन में कभी भी नहीं जाएँ ,अगर जरुरी हो तो कुछ खाने का सामान लेकर चलें |
3.जाखू मंदिर जाएँ तो कोई भी पर्स बैग वगेरह ना लेकर जाएँ पर छड़ी ले जाना नहीं भूलें |
4.कुफरी गर्मी या बरसात में कभी नहीं जाएँ जब तक वहां का प्रशासन वहां के रास्ते की सुध नहीं लेता | इसे नेट पर ही निहारें बहुत खूबसूरत लगेगा वर्ना दूर के ढोल सुहावने होते हैं यह जान लें | यहाँ केवल सर्दियों में ही जाएँ तो आपको प्रकृति की गोद का अहसास होगा |
5.मौसम के अनुसार गर्म कपड़े लेकर जाएँ |
6.दर्शनीय स्थल सर्दी में ही देखने जायें ,गर्मी में मौसम का आनंद लें बस,आसपास घुमने नहीं जाएँ |
7.होटल बेशुमार हैं शिमला में ,नेट से थोडा अंदाजा लेकर जाएँ | होटल मॉल रोड या रिज पर लें तो बेहतर रहेगा |
8.अगर ऑफ़ सीजन में जाएँ तो कम पैसों में दोगुना मजा ले सकते हैं |
9.अपनी जरुरी दवाइयाँ लेकर जाएँ ,मिल तो सब कुछ जाता है अगर आप बार बार चल सकते हैं तो |
10.यह प्राकृतिक सम्पदा आपकी अपनी है इसे स्वच्छ रखें |




अलविदा दोस्तों मिलते हैं बहुत जल्दी एक और यात्रा वृतांत के साथ तब तक के लिए मस्त रहें और व्यस्त रहें ....नमस्कार ...

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

शिमला यात्रा वृतांत भाग 2.

दूसरा दिन :--
दूसरे दिन सब आराम से उठकर तैयार हुए , खूब बरसात होने लगी थी इसलिए होटल में ही थोडा नाश्ता ले लिया ,वैसे तो शिमला के आसपास घूमने जाने का प्रोग्राम था लेकिन बारिश के कारण 12 बज चुके थे ,इसलिए सब ने यहीं शिमला में ही घूमने का फैसला किया यहाँ तीन रोड लगभग समान्तर चलती हैं सबसे ऊपर रिज रोड ,फिर नीचे माल रोड और उसके नीचे है नीचा बाजार रोड है |   रिज रोड पर लायब्रेरी है और कुछ होटल हैं ,माल रोड पर थाना , नगर निगम दफ्तर है ,फायर स्टेशन है और बहुत सारे होटल ढाबे , दुकानें हैं यह एक खुला बाजार है | 





इसके ठीक नीचे छोटा बाजार है जो दिल्ली के चांदनी चौंक की तरह तंग बाजार है और ये दुकानों से पटा हुआ है ,यहाँ बाकी दुकानों के इलावा कपडे की,जूतों की और किताबों की बहुत दुकानें हैं ,शौपिंग के लिए यह एक परफेक्ट बाजार है |  
यहाँ शॉपिंग करने के बाद और खाना वगेरह खाने के बाद हम घूमते हुए वापिस होटल पहुँच गए | आराम करने के बाद शाम ढलने के साथ ही हम वापिस पहुंचे चौंक पर यहाँ बिलकुल इंडिया गेट जैसा माहौल रहता है काफी चहल पहल थी बच्चे घुड़सवारी का मजा ले रहे थे ,धुंध धीरे धीरे बढ़ने लगी और मौसम सुहावना होता गया , सब लोग वहां मौसम का मजा ले रहे थे | कोई फोटो के पोज़ ले रहा था कोई कुछ खाने का मजा ले रहे थे | वहां लकड़ी से बने बेंच लगे हुए हैं ,यहाँ जब कोई प्रोग्राम वगेरह होता है तो सब इन पर बैठ सकते हैं | ऐसे ही घूमते फिरते ,खाते पीते सब ने खूब मजे किये | 

         इसके ठीक पीछे की तरफ है लक्कड़ बाजार ,यहाँ लकड़ी से बना हुआ सामान मिलता है खासकर यह बाजार स्मृति चिन्हों के लिए प्रसिद्ध है यहाँ से आप शिमला के उपहार खरीद कर ले जा सकते हैं भेंट स्वरुप देने के लिए | कुछ कपड़े की भी यहाँ दुकानें हैं शिमला में ज्यादा दुकानें सरदार चलाते हैं क्योंकि यह चंडीगढ़ के पास है |
            हम लोग खरीदारी करके फिर वापिस होटल पहुँच गए और थोड़ा आराम करने के बाद रात को वापिस निकले भोजन करने के लिए ,यहाँ पर आपके लिए बहुत सारे आप्शन हैं जो खाना चाहें ,जैसा खाना खाना चाहें,एक तरफ ढाबे का खाना है तो एक तरफ अच्छे अच्छे रेसटोरेंट भी हैं ,सागर रत्ना भी यहाँ मौजूद है | बालूजी में खाना खाने के बाद हम वापिस होटल आ गए | 
तीसरा दिन :--
आज मौसम बहुत साफ़ था कोई बारिश नहीं और हमने प्रोग्राम बनाया जाखू मंदिर जाने का ,वो भी सुबह सुबह ताकि हम बच्चों के उठने से पहले होकर वापिस आ जाएँ क्योंकि बच्चों का मंदिर जाने का कोई विचार नहीं था | इसलिए हम पांच लोग जाखू मंदिर के लिए निकले |
जाखू मंदिर जाने के लिए 
1.एक तो आप रिज के पास से रास्ता जाता है वहां से जा सकते हैं जो पैदल चढ़ाई करना चाहते हों ,एक दम सीधी चढ़ाई है इसलिए थोड़ी कठिन है पर दो घंटे में आप चढ़ाई कर सकते हैं |
2.दूसरा चर्च के पीछे से एक गवर्मेंट की टैक्सी चलती है वहां से जा सकते हैं वो केवल एक ही टैक्सी है जो वहां के स्थानीय लोगों के लिए सरकार द्वारा लगाई गई है उसी में वो कुछ यात्रियों को भी बिठा लेते हैं 10-10 रुपये लेकर ,उसके आते ही लोग झपट पड़ते हैं जो घुस गया वोही जा सकता है |
3.पोनी द्वारा भी आप चढ़ाई कर सकते हैं |
4. तीसरा आप किराये की टैक्सी लेकर भी वहां जा सकते हैं जिसका किराया सिर्फ वहीँ जाने के लिए 300 या 400 है ,अगर आप किसी और ट्रिप के साथ उसे लेते हैं तो इसका किराया 200 रुपये लिया जाता है |                             जाखू मंदिर जाने के लिए रिज के पास से ही रास्ता जाता है यह 2.5 किलोमीटर दूर है ,यहाँ पैदल, पोनी से या टैक्सी से जाया जा सकता है | भगवान हनुमान को समर्पित यह धार्मिक स्थल 'रिज' के निकट स्थित है।

जाखू मंदिर, जाखू पहाड़ी पर स्थित है | बर्फीली चोटियों, घाटियों और शिमला शहर का सुंदर और मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है। यहाँ से पर्यटक सूर्योदय और सूर्यास्त के लुभावने दृश्यों का आनंद ले सकते हैं।
                    तो जनाब हमने प्राइवेट टैक्सी लेने की सोची जो की एक किलोमीटर दूर खड़ी थी पहले वहां तक पैदल मार्च करना पड़ा हमें ,वहां पहुँचने के लिए हमें आधा घंटा लग गया 
उसके बाद हम टैक्सी में बैठे ,रास्ता काफी खतरनाक था सीधी चढ़ाई थी सिर्फ 15 मिनट में ही हम पहुँच गए हनुमान जी के जाखू मंदिर | गाड़ी से उतरने से पहले ही हमें ड्राईवर ने हिदायत कर दी की चश्मा उतार कर जेब में रख लें पर्स ,बैग या तो छुपा लें या यहीं गाड़ी में छोड़ कर जायें क्योंकि वहां के बंदर बहुत बदमाश हैं वो सब छीन ले जाते हैं | मंदिर के द्वार पर ही पहुंचे की किसी ने कहा लाठी साथ लेकर चलें बंदर बहुत हैं ,तब लाठी बेचने वाले ने कहा साथ प्रसाद लेना अनिवार्य है | खैर हम चल पड़े बंदरों से बचते बचाते सीड़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर खुले मैदान में पहुंचते ही फिर बंदर हमारे पीछे पीछे आ गए क्योंकि मैंने अपना पर्स दुपट्टे के नीचे छुपा रखा था | मेरा दुपट्टा छीनने लगे ,तभी डैडी ने अपनी बेल्ट निकाली तो तब वो थोड़ा दूर भागे | आप पर्स वगेरह कुछ ना लेकर जायें तो बंदर दूर ही रहते हैं |
तब मंदिर के बाहर ही एक कमरा बना हुआ था जिसमें चप्पल वगेरह अपना सामान रख सकते थे |



उसके बाद मंदिर में गए यहाँ बाहर एक कर्मचारी वर्दी में तैनात था जो लाठी लिए हुए बंदरों को मंदिर में घुसने से हटा रहा था | मंदिर में जाकर दर्शन कर ,परिकर्मा की| वहां एक बोर्ड के ऊपर लिखा था की जब हनुमान संजीवनी बूटी लेने जा रहे थे तो यहाँ वो थोड़ी देर रुके थे | मंदिर दर्शन के बाद हम वापिस चप्पल पहन बंदरों से बचते बचाते गाड़ी तक पहुंचे | जो 15 मिनट में वापिस हमें ले आई ,उसके बाद फिर वोही आधा घंटा चल कर हम दोबारा होटल में पहुँच गए |
सभी तब तक तैयार हो चुके थे इसलिए हम सबने आसपास के दर्शनीय स्थलों को देखने का फैसला किया | इसके लिए हम रिज रोड पर आगे निकल गए क्योंकि वहां बहुत टैक्सी वाले दलाल आपको मिल जाते हैं , जिसका पता हमने लिया था उसके पास ही हम पहुँच गए उसके पास तीन चार अलग अलग ट्रिप की लिस्ट थी जिसमें से हमने पहला ट्रिप लिया जिसमें उसने हमें कुफरी,इंदिरा टूरिस्ट पार्क,चीनी बंगलो,फागू वैली ,नाग मंदिर दिखाना था | जिसका रेट 1400 रुपये बताया गया बड़ी गाड़ी का जबकि छोटी गाड़ी का रेट 1000 रुपये था ,वो 1600 रुपये में हमें ले जाने के लिए तैयार हो गया जिसमें हमने एक दूसरे ट्रिप की जगह एम्यूजमेंट पार्क भी शामिल किया था, जिसके 200 रुपये उसने फालतू लिए थे |
कुफरी 
   इसके बाद हम गाड़ी में बैठ निकले कुफरी की तरफ जो शिमला से 16 किलोमीटर दूर है ,रास्ते में एक जगह उसने रोक कर कहा यह ग्रीन वैली है ,हमने वापिसी में दिखाने के लिए कहा ,पहले सीधे कुफरी जाने की इच्छा जताई | कुफरी पहुँच कर उसने हमें उतार दिया गाड़ी पार्क कर दी और कहा यहाँ से घोड़े जाते हैं जो आपको फागू वैली नाग मंदिर महासू पीक एप्पल गार्डन दिखायेंगे | वहां से हमने घोड़े किये जिसका रेट तह था 380 रुपये प्रति सवारी ,घोड़े वाले ने जाने से पहले ही आगाह किया... पहुँचने में थोड़ा समय लगेगा आप लघुशंका से निवृत हो लें यहाँ पर भी उसकी सेटिंग थी ,अंदर गंदे से शौचालय में जाने के लिए 5 रुपये लिए गए |

               अब चले हम घोड़ों पर होकर सवार फागू वैली के लिए |हम आठ लोगों के साथ सिर्फ दो घोड़ों के रखवाले थे और रास्ता इतना गन्दा ,ऊँचा नीचा ,गहरे खड्डे और कहीं कहीं घुटनों घुटनों तक दलदल | जिसमें से सब राम राम करते ही निकल रहे थे | बचते बचाते हुए,घोड़ेवाले के निर्देशों का पालन करते हुए ...जैसे चढ़ाई के वक्त वो बोलता आगे झुको और पैर पीछे उतराई के वक्त वो बोलता पीछे को झुको और पैर आगे रखो ...
आखिर पहुंचे हम सब फागू वैली यहाँ घोड़े वाले ने उतार दिया और बोला एक घंटे बाद फ़ोन कर दें उसे बुलाने के लिए |






फागू वैली एक उजड़े हुए खेत के सिवाए कुछ भी नहीं था ,यहाँ दो याक थे जिस पर लोग फोटो खिंचवा रहे थे ,कुछ स्टाल टाइप की दुकानें जिन पर मैग्गी ,पेप्सी वगेरह मिल रही थी | एक दो दुकानों पर शाल स्वेटर भी रखे थे ,क्योंकि बारिश में ऊपर ठण्ड हो जाती होगी | वहां बैठे बैठे सबने मैग्गी वगेरह ले ली थी | फिर सब इधर उधर घूमने लगे ,हम कुछ लोग ऊपर नाग मंदिर चले गए |



थोड़ी दूरी पर ही यह मंदिर सामने ही नजर आता है वहां 20..25 सीड़ियाँ हैं यहाँ जाकर हम माथा टेक वापिस आ गए फोटो खींचते खिंचाते हुए ,यहीं साथ ही सेबों के बहुत से पेड़ हैं जिसे एप्पल वेल्ली के नाम से जाना जाता है |यहाँ भी बंदर बहुत नजर आते हैं |
    यहाँ से हम वापिस लौटे और फिर आकर घोड़े वाले को फ़ोन किया जो 15..20 मिनट में आ गया | फिर से हमें घोड़ों पर चढ़ाया गया पैर फंसाये गए और हिदायतें देते हुए हमें नीचे उतारने लगे घोड़े वाले |घोड़े अपनी मन मर्जी से चलते हुए हमें ढो कर चल ही रहे थे ,जब हम पहुँचने ही वाले थे तभी बेटे अभिषेक का घोड़ा गिर पड़ा और वो पता नही कैसे अपने पैर निकाल कर एक साइड को उछल गया यहाँ घोड़े वाले ने उसे एक दम से पकड़ लिया और वो ओंधे मुंह गिरने से बच गया | बस 5 मिनट बाद ही हम सब भी नीचे पहुँच गए और घोड़ों से उतर गए | 
    यहाँ घोड़ों पर चढ़ना बिलकुल भी सुरक्षित नहीं है इनके चक्कर में ना आयें | एक तो वहां देखने लायक कुछ भी नहीं दूसरा वहां पहुँचने का रास्ता बिल्कुल असुरक्षित है |सर्दिओं में यहाँ बर्फ़बारी देखने लोग आ सकते हैं |                   इसे देखने के बाद हम दोबारा गाड़ी में बैठ कर पहुँचे चिड़ियाघर देखने ,यहाँ की टिकट 10 रुपये थी ,हमने टिकट ले ली और चले जानवरों से रूबरू होने ..यह काफी बड़ी जगह में फैला हुआ है और जानवर खुले में पता नहीं कहाँ कहाँ छुपे बैठे थे उनके आसपास काफी बड़ी बाड़ लगी हुई थी | वहां ज्यादा जानवर नहीं हैं | 




इसे देखने के बाद हम वापिस आ गए क्योंकि चीनी बंगले में कुछ देखने लायक था नहीं सिर्फ एक पुराना बंगला है जिसमे अब रेस्तौरेंट बना दिया गया है | यहाँ खाने को भी ख़ास कुछ नहीं मिलता |                      
हम वापिस शिमला की तरफ चल पड़े | रास्ते में ही कुफरी से आते हुए 'हिप हिप हुर्रे' के नाम से एक एम्यूजमेंट पार्क है जिसमें बच्चों के लिए करने को काफी कुछ है ,इसकी प्रवेश टिकट तो 20 रुपये है लेकिन अंदर झूले लेने की या कुछ गेम के पैकज हैं जो 250 रुपये से 450 रुपये प्रति व्यक्ति टिकट है | इसमें एक रेस्तोरेंट भी है जिसमें आप चाय नाश्ता ले सकते हैं या खाना भी खा सकते हैं |यहाँ एक कपड़े की और एक मिठाई की दुकान है यहाँ कई प्रकार के फलों की बर्फी मिलती है | यहाँ सबने खूब मस्ती की ,फिर चाय पकौड़े लिए और बर्फी लेकर उसके बाद दोबारा हम बाहर आकर गाड़ी में बैठ गए |






           रास्ते में शिमला से कुछ किलोमीटर ही दूर ग्रीन वैल्ली है यहाँ गाड़ी रोकी गई ,वहां सड़क पर ही खड़े होकर आप बस पीछे के हरे भरे पेड़ों की तस्वीर ले सकते हैं इसी को ग्रीन वैल्ली कहते हैं | 



        इसके बाद हम सब वापिस पहुँचे शिमला के टैक्सी स्टैंड की तरफ जो लक्कड़ बाजार के पास है | वहां टैक्सी वाले ने हमें उतार दिया ,यहाँ से फिर पैदल चल कर आपको जाना पड़ता है ,यहाँ से आगे गाड़ियाँ नहीं जाती हैं | हम वापिस बाजार में घूमते हुए वापिस होटल पहुँचे और कुछ चाय पकौड़े का दौर चला और साथ ही सब पैकिंग वगेरह करने लगे क्योंकि सुबह हमें निकलना था ,थोड़ी देर सबने आराम किया और फिर रात को हम सब खाना खाने के लिए निकले | हमने खाना खाया और वापिस होटल पहुँच गए और बाकी की पैकिंग हमने कर ली और सो गए |


Shimla photos, Night view of Shimla

शिमला रात का नजारा 
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