कार्तिक का महीना एक पवित्र महीना माना जाता है जिसमें गंगा स्नान का विशेष महत्व रहा है | 12 नवम्बर का दिन हमने भी चुना इस बार गढ़ मुक्तेश्वर जाने के लिए | अपनी ही गाड़ी में हमने जाने का फैसला किया | लगभग 9 बजे हम निकल पड़े घर से ,फिर पटेल नगर से बाकी सदस्यों को लेते हुए हम 9.30 बजे वहाँ से रवाना हो गए अपने नये गंतव्य गढ़ मुक्तेश्वर की ओर |
परिचय एवं स्थिति :---
गढ़मुक्तेश्वर भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के हापुड़ जिले का शहर है। इसे गढवाल जाटों ने बसाया था। गंगा नदी के किनारे बसा यह शहर गढवाल राजाओं की राजधानी था। बाद में पृथ्वीराज चौहान ने हड़प लिया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सौ किलोमीटर दूर 'राष्ट्रीय राजमार्ग 24' पर 'गढ़मुक्तेश्वर' नामक नगर बसा है जो हापुड़ ज़िले का एक तहसील मुख्यालय है। गढ़मुक्तेश्वर मेरठ से 42 किलोमीटर दूर स्थित है और गंगा नदी के दाहिने किनारे पर बसा है। विकास की दृष्टि से गढ़मुक्तेश्वर सबसे पिछड़ी तहसील मानी जाती है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला गंगा स्नान पर्व उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
दिल्ली से इसकी दूरी लगभग 85 किलोमीटर है ,क्योंकि सुबह का समय था तो इतनी भीड़ नहीं थी और हमने खाना गाड़ी में ही रख लिया था इसलिए जल्दी से हम बढते जा रहे थे | किसी अच्छे ढाबे जा होटल की तलाश करते करते हम तीन घंटे में वहाँ पहुँच गए थे |
कैसे पहुंचें :---
सड़क मार्ग से :-
दिल्ली से यहां की दूरी लगभग 85 किलोमीटर है। उत्तर प्रदेश रोडवेज की नियमित बसें 'आनन्द विहार बस अड्डा, दिल्ली से चलती हैं।
रेल मार्ग से :-
यहाँ दो रेलवे स्टेशन हैं गढ़मुक्तेश्वर सिटी और बृजघाट रेलवे स्टेशन |
बृजघाट रेलवे स्टेशन यहां से 6 किलोमीटर की दूरी पर है। यह दिल्ली मुरादाबाद रूट पर पड़ता है | यह बड़े बड़े शहरों जैसे लखनऊ ,इलाहाबाद ,रोहतक ,सहारनपुर ,मुज्जफरपुर से जुदा हुआ है |
अपनी गाड़ी :-
यह विकल्प तो है ही हमेशा अपने अनुसार चलने के लिए |
निवास :---
यहाँ पर कुछ अच्छे होटल हैं जो हाईवे पर हैं और सभी जरुरी सुविधायों से सुसज्जित हैं जैसे राही टूरिस्ट बंगलो ,होटल क्रिस्टल पैलेस, राजमहल होटल,होटल कृष्णा सागर आदि लेकिन घाट के पास कोई भी अच्छा निवास अच्छी सुविधाओं के साथ उपलब्ध नहीं है |
पौराणिक महत्त्व :---
भागवत पुराण व महाभारत के अनुसार यह कुरु की राजधानी हस्तिनापुर का भाग था। आज पर्यटकों को यहां की ऐतिहासिकता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ प्राकृतिक ख़ूबसूरती भी खूब लुभाती है। मुक्तेश्वर शिव का एक मन्दिर और प्राचीन शिवलिंग कारखण्डेश्वर यहीं पर स्थित है। काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह 'गढ़मुक्तेश्वर' भी पुराण उल्लिखित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार 'गढ़मुक्तेश्वर' का प्राचीन नाम 'शिववल्लभ' (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम 'गढ़मुक्तीश्वर' (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया।
कथा :---
शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे। भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये। गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया। उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया। कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा - हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित 'शिववल्लभ' क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे। पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया। तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम 'गणमुक्तीश्वर' पड़ गया। बाद में 'गणमुक्तीश्वर' का अपभ्रंश 'गढ़मुक्तेश्वर' हो गया। गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है।
यहाँ पहुँचने के बाद हमने गाड़ी घाट की तरफ ले जानी चाही क्योंकि घाट तक जाने के लिए पैदल चलना पड़ता और पार्किंग काफी दूर थी हाई वे के बाई तरफ यहाँ कुछ गेस्ट हाउस वगेरह भी थे तो वहाँ पुलिस वाले खड़े थे अवरोध लगाकर उन्होंने गाड़ी अन्दर ले जाने के लिए रोका फिर वोही हुआ गाड़ी एक साइड खड़ी करके आए और उससे बात करके गए तब उसने गाड़ी ले जाने दी क्योंकि उसकी मुट्ठी गरम कर दी गई थी मात्र सौ रुपये देकर |
वहाँ पहुंचकर हमने घाट के नजदीक कोई होटल या गेस्ट हाउस वगेरह ढूंडना चाहा एक ही गेस्ट हाउस मिला वो भी इतना गन्दा था की हमने उसे ना लेने का निर्णय बनाया क्योंकि हमें सिर्फ कपड़े वगेरह बदलने के लिए ही इसकी जरुरत थी |वैसे घाट के पास बहुत सारी फानूस की बनी हुई झोंपड़ीयां हैं जो किराये पर मिलती हैं जैसा की चित्रों में दिखाया गया है |
क्योंकि कार्तिक माह चल रहा था इसलिए काफी स्त्रियाँ हवन यज्ञ में व्यस्त नज़र आईं | सब मिलकर हवन कर रहीं थी |
हमने घाट के उस पार जाकर नहाने का मन बनाया |हम घाट की तरफ बढ़ गए और नाव वाले से पूरी नाव दूसरे पार ले जाने का मूल्य पूछा जबकि एक सवारी का मूल्य 40 रुपये लिखा हुआ था और हम कुल 6 लोग थे हमने उससे 200 रुपये में बात करली | उस पार पहुँचने के लिए रास्ते में ज्यादा पानी नहीं था कभी कभी नाव ले जाने वाला उतरकर पानी में खड़ा हो जाता नाव को ठेलने के लिए | और वो हमें उस पार छोड़ आया |
यहाँ पर बहुत सारे तख्तपोश लगे हुए हैं जिस पर आप सामान रख सकते हैं बैठ सकते हैं खाना खा सकते हैं |यहाँ पहुंचकर हमने जूते वगेरह उतारकर एक तख्तपोश पर सारा सामान रख दिया | जो नहाने के इच्छुक थे वो नहाने के लिए चल पड़े | हमने स्नान किया आराम से क्योंकि पानी ना तो गहरा था ना ही उसमें बहाव था |
उसके बाद एक फानूस के पत्तों से बने कमरे में जिसमें साड़ी या दुपट्टे का पर्दा लगा था उसमें जाकर कपड़े बदले |
तब तक खाने की इच्छा प्रबल हो चुकी थी हमने खाना जो साथ लेकर आए थे वो खोला और पूरी पिकनिक की तरह उसका आनंद उठाया |
पेट पूजा होने तक नाव दोबारा हमें लेने पहुँच चुकी थी हमने वहीँ पूजा की और नाव में बैठकर वापिस उसी किनारे पहुँच गए |
गंगा मेला :---
इसी महत्व के कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवाडे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान 'गणमुक्तीश्वर' पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं।
धार्मिक कृत्य :---
यहां 'मुक्तीश्वर महादेव' के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की जरूरत नहीं रहती। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था। यहां कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था। तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ। कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते हैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
व्यापार :---
यह गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था। उन दिनों यहां इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था। इसके साथ ही यहां गुड़ - गन्ने की बड़ी मंडी थी। यहां का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है। यहां के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं।
साक्षरता एवं भाषा :---
यहाँ की कुल जनसंख्या 60,000 के लगभग है |यहाँ पर साक्षरता रेट 82 % है जोकि राष्ट्रीय साक्षरता रेट से भी अधिक है जोकि 74% है | इसमें पुरुषों का प्रतिशत अधिक है | यहाँ की भाषा हिंदी है |
यहाँ आकर उनका रहन सहन देखकर आपको नहीं लगता की आप किसी पढे लिखे राज्य में आए हैं जबकि यहाँ पर बहुत सारे स्कूल और कॉलेज हैं|
जलवायु :---
यहाँ की जलवायु गर्मिओं में बहुत गरम और सर्दिओं में बहुत सर्द रहती है ,अप्रैल से जून तक यहाँ खूब गर्मी पड़ती है और जून से सितम्बर मध्य तक बरसात और अक्तूबर से मार्च तक खूब सर्दी होती है |
दर्शनीय स्थल :---
गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे स्थित देवी गंगा को समर्पित मुक्तेश्वर महादेव मंदिर, गंगा मंदिर, मीराबाई की रेती, गुदडी़ मेला, बृज घाट, झारखंडेश्वर महादेव, कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं।
गढ़मुक्तेश्वर भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के हापुड़ जिले का शहर है। इसे गढवाल जाटों ने बसाया था। गंगा नदी के किनारे बसा यह शहर गढवाल राजाओं की राजधानी था। बाद में पृथ्वीराज चौहान ने हड़प लिया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सौ किलोमीटर दूर 'राष्ट्रीय राजमार्ग 24' पर 'गढ़मुक्तेश्वर' नामक नगर बसा है जो हापुड़ ज़िले का एक तहसील मुख्यालय है। गढ़मुक्तेश्वर मेरठ से 42 किलोमीटर दूर स्थित है और गंगा नदी के दाहिने किनारे पर बसा है। विकास की दृष्टि से गढ़मुक्तेश्वर सबसे पिछड़ी तहसील मानी जाती है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला गंगा स्नान पर्व उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
कैसे पहुंचें :---
सड़क मार्ग से :-
दिल्ली से यहां की दूरी लगभग 85 किलोमीटर है। उत्तर प्रदेश रोडवेज की नियमित बसें 'आनन्द विहार बस अड्डा, दिल्ली से चलती हैं।
रेल मार्ग से :-
यहाँ दो रेलवे स्टेशन हैं गढ़मुक्तेश्वर सिटी और बृजघाट रेलवे स्टेशन |
बृजघाट रेलवे स्टेशन यहां से 6 किलोमीटर की दूरी पर है। यह दिल्ली मुरादाबाद रूट पर पड़ता है | यह बड़े बड़े शहरों जैसे लखनऊ ,इलाहाबाद ,रोहतक ,सहारनपुर ,मुज्जफरपुर से जुदा हुआ है |
अपनी गाड़ी :-
यह विकल्प तो है ही हमेशा अपने अनुसार चलने के लिए |
निवास :---
यहाँ पर कुछ अच्छे होटल हैं जो हाईवे पर हैं और सभी जरुरी सुविधायों से सुसज्जित हैं जैसे राही टूरिस्ट बंगलो ,होटल क्रिस्टल पैलेस, राजमहल होटल,होटल कृष्णा सागर आदि लेकिन घाट के पास कोई भी अच्छा निवास अच्छी सुविधाओं के साथ उपलब्ध नहीं है |
पौराणिक महत्त्व :---
भागवत पुराण व महाभारत के अनुसार यह कुरु की राजधानी हस्तिनापुर का भाग था। आज पर्यटकों को यहां की ऐतिहासिकता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ प्राकृतिक ख़ूबसूरती भी खूब लुभाती है। मुक्तेश्वर शिव का एक मन्दिर और प्राचीन शिवलिंग कारखण्डेश्वर यहीं पर स्थित है। काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह 'गढ़मुक्तेश्वर' भी पुराण उल्लिखित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार 'गढ़मुक्तेश्वर' का प्राचीन नाम 'शिववल्लभ' (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम 'गढ़मुक्तीश्वर' (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया।
कथा :---
शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे। भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये। गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया। उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया। कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा - हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित 'शिववल्लभ' क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे। पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया। तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम 'गणमुक्तीश्वर' पड़ गया। बाद में 'गणमुक्तीश्वर' का अपभ्रंश 'गढ़मुक्तेश्वर' हो गया। गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है।
यहाँ पहुँचने के बाद हमने गाड़ी घाट की तरफ ले जानी चाही क्योंकि घाट तक जाने के लिए पैदल चलना पड़ता और पार्किंग काफी दूर थी हाई वे के बाई तरफ यहाँ कुछ गेस्ट हाउस वगेरह भी थे तो वहाँ पुलिस वाले खड़े थे अवरोध लगाकर उन्होंने गाड़ी अन्दर ले जाने के लिए रोका फिर वोही हुआ गाड़ी एक साइड खड़ी करके आए और उससे बात करके गए तब उसने गाड़ी ले जाने दी क्योंकि उसकी मुट्ठी गरम कर दी गई थी मात्र सौ रुपये देकर |
वहाँ पहुंचकर हमने घाट के नजदीक कोई होटल या गेस्ट हाउस वगेरह ढूंडना चाहा एक ही गेस्ट हाउस मिला वो भी इतना गन्दा था की हमने उसे ना लेने का निर्णय बनाया क्योंकि हमें सिर्फ कपड़े वगेरह बदलने के लिए ही इसकी जरुरत थी |वैसे घाट के पास बहुत सारी फानूस की बनी हुई झोंपड़ीयां हैं जो किराये पर मिलती हैं जैसा की चित्रों में दिखाया गया है |
तब तक खाने की इच्छा प्रबल हो चुकी थी हमने खाना जो साथ लेकर आए थे वो खोला और पूरी पिकनिक की तरह उसका आनंद उठाया |
इसी महत्व के कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवाडे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान 'गणमुक्तीश्वर' पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं।
धार्मिक कृत्य :---
यहां 'मुक्तीश्वर महादेव' के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की जरूरत नहीं रहती। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था। यहां कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था। तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ। कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते हैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
व्यापार :---
यह गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था। उन दिनों यहां इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था। इसके साथ ही यहां गुड़ - गन्ने की बड़ी मंडी थी। यहां का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है। यहां के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं।
साक्षरता एवं भाषा :---
यहाँ की कुल जनसंख्या 60,000 के लगभग है |यहाँ पर साक्षरता रेट 82 % है जोकि राष्ट्रीय साक्षरता रेट से भी अधिक है जोकि 74% है | इसमें पुरुषों का प्रतिशत अधिक है | यहाँ की भाषा हिंदी है |
यहाँ आकर उनका रहन सहन देखकर आपको नहीं लगता की आप किसी पढे लिखे राज्य में आए हैं जबकि यहाँ पर बहुत सारे स्कूल और कॉलेज हैं|
जलवायु :---
यहाँ की जलवायु गर्मिओं में बहुत गरम और सर्दिओं में बहुत सर्द रहती है ,अप्रैल से जून तक यहाँ खूब गर्मी पड़ती है और जून से सितम्बर मध्य तक बरसात और अक्तूबर से मार्च तक खूब सर्दी होती है |
दर्शनीय स्थल :---
गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे स्थित देवी गंगा को समर्पित मुक्तेश्वर महादेव मंदिर, गंगा मंदिर, मीराबाई की रेती, गुदडी़ मेला, बृज घाट, झारखंडेश्वर महादेव, कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं।
मुक्तेश्वर महादेव मंदिर :-
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर के प्राचीन शिव मंदिरों में से है |ऐसा माना जाता है की यह मंदिर राजा शिवि ने बनाया था |इस मंदिर में शिव लिंग स्थापित है जोकि संत परशुराम ने बनाया था ऐसा कहा जाता है |
गंगा मंदिर :-
गंगा मंदिर एक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है इसमें 101 सीड़ियाँ बनी हुई थी जोकि गनगा में उअतारती हैं ,उसमें से 85 अभी हैं | ब्रह्मा की सफ़ेद पत्थर से बनी मूर्ति देखने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से यात्री आते हैं नहुष कूप :-
मंदिर में राजा नहुष द्वारा यज्ञ किया गया और यहाँ एक कूप का भी निर्माण किया गया जिसमें पानी की पूर्ति गंगा के पानी से होती है | इसलिए इसे नहुष कूप कहा जाता है |
मीरा बाई की रेती :-
मुकतेश्वर मंदिर के बिल्कुल कुल सामने मीरा बाई की रेती के नाम से जाना जाने वाला दर्शनीय स्थल है यहाँ पूरे रेत ही फैली हुई है ऐसा कहा जाता है की यहाँ पर मीरा बाई ने भक्ति की थी |यह एक सुन्दर मंदिर है |
बृजघाट :-
बृजघाट एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है | यहाँ वेदांत मंदिर, अमृत परिसर हनुमान मंदिर जैसे बहुत सारे मंदिर हैं |गंगा घाट सबसे सुन्दर घाट है |
कल्पवृक्ष :-
यह एक दिव्य वृक्ष है जो वेदांत मंदिर में विजयमल बघेल ने लगाया था |इसका धार्मिक ,आध्यात्मिक एवं औषधीय महत्व है |यह एक दुर्लभ जाति का पौधा है |
घाट से वापिस लौटते हुए हमने बाजार का एक चक्कर लगाया यहाँ कुछ ऐसा नहीं था जो ख़रीदा जा सके | कोई भी ऐसा साफ़ सुथरा रेसटोरेंट नहीं था यहाँ खाना खाया जा सके इसलिए अपना खाना साथ ले जाना ना भूलें |
वापिस गाड़ी में बैठ जब निकलने लगे तो भिखारिओं को कुछ पैसे दे रहे थे तो एक भिखारी को ज्यादा ही लाचार जान जब उसे 100 रुपये देने की कोशिश की तो उसने लेने से इनकार कर दिया यह कहकर बाबूजी मैं इतने संभाल नहीं पायूँगा ,फिर उसे खुले पैसे कहीं से लेकर 10 रुपये दिए उस भिखारी के लिए सब नतमस्तक हो गए ,यह सोचते हुए कि दुनिया में ईमानदारी अभी भी कायम है |
इसके बाद हम वापिस दिल्ली के लिए निकल पड़े समय हो गया था 4 बजे का | धार्मिकता से ओतप्रोत हो थके हुए ठीक तीन घंटे में हम अपने घर पहुँच चुके थे |
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